आ अब लौट चलें......
(राजकपूर की पुण्यतिथि पर विशेष)
कलाकार तो बहुत हुए मगर किसी की जीवंत भूमिका लोगों के दिलों पर आज भी राज करती हैं। उन्हीं में से एक थे जमाने के मशहूर फिल्म जगत की धरोहर शो मैन राजकपूर। इनके अंदर लगन और अभिनय क्षमता ने इन्हें देश हीं नहीं विदेशों में भी एक अलग पहचान दिलायी।
(जीना यहां मरना यहां इसके सिवा जाना कहां........)
बात 1935 की है, जब उनकी उम्र केवल 11 वर्ष थी, जब फिल्म इंकलाब में अभिनय किया था राजकपूर ने। वे बांबे टाॅकिज स्टूडियो में हेल्पर का काम करते थे। इनके पिताजी पृथ्वी राजकपूर को तनिक ीाी विश्वास नहीं था कि मेरा लाडला कोई अच्छा काम कर पाएगा। इसलिए उन्हांेने राज को क्लैपर में काम लगवा दिया। लेकिन प्रतिभा तो झलकने लगती है। तभी तो केदार शर्मा ने राज के भीतर के कलाकार को पढ़ लिया था। 1947 में मधुबाला के साथ राकपूर को हीरो बनाकर फिल्म निलकमल बनाई। 24 वर्ष की उम्र में हीं राज ने आ.के. स्टूडियो की स्थापना कर लिया था। जबकि 1948 में सबसे कम उम्र में आग फिल्म का निर्देशन कर लोगों के दांत खट्टे कर दिये।
(बैक ग्राउण्ड म्यूजिक-आवारा हूं, आवारा हूं गर्दिंश में हुं आसमान का तारा हूं........)
राजकपूर 1948 से 1988 तक सफल निर्देशक रहे। जिसमें अधिकांशतः फिल्में बाॅक्स आॅफिस पर सुपर हिट रही। इसके साथ हीं सबमें अपने हीरो भी रहे। श्री 420 में नर्गिस के सामने वे अपने रोल में कहते हैं-खा गई न तुम भी धोखा-और ब्लैक बोर्ड पर जोकर चित्र बना देते हैं। समय की नजाकत को समझने वाले राज ने बाॅबी फिल्म जहां अपने बेटे ऋषि को डिम्पल के साथ उतारा वहीं सत्यं शिवम सुन्दरम, रात तेरी गंगा मैली, जिस देश में गंगा बहती है, मेरा नाम जोकर , आवारा, पेम रोग, अनाड़ी, संगम आज भी फिल्म जगत और लोगों पर अपनी पैठ बनाये हुये है।
(बैक ग्राउण्ड म्यूजिक-मेरे टूटे हुए दिल से कोई तो आज ये पुछे की तेरा हाल क्या है........)
चार्ली चैपलिन के प्रशंसक राज के अभिनय में भी चार्ली का पूरा प्रभाव नजर आता है। वैस इन्हें भारतीय फिल्म जगत का चार्ली चैपलिन भी कहा गया। राजकपूर की फिल्में ने सावियत रुस, चीन, अफ्रिका देशों में भी अपनी प्रतिभा के झंडे गाड़े। राज की फिल्मों में संगीतकार शंकर जयकिशन जो लगातार 18 वर्षों तक नंबर वन रहे उनके संगीतकार हुआ करते थे। तो उनके गीतकार शैलेन्द्र तथा हसरत जयपुरी, गायक में मुकेश यानि एक टीम हुआ करती थी।
(-सत्यम शिवम् सुन्दरम्........)
राजकपूर को 1987 में फिल्म जगत का सबसे बड़ा पुरस्कार दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिया गया था। लेकिन ऐसे जीवंत फिल्मों के जरीये फिल्मी दुनियां में इतिहास रचने वाले के लिए बस एक हीं गाना आंखों में आंसू दे जाते हैं.....हम तो जाते अपने धाम सबको राम-राम.....और 1988 में अपनी यादें छोड़ हमसे हमेशा को रूठ गए।
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