
विधवा का सवाल
हर हुक्म को
पत्थर की लकीर मानना
जिन्दगी में
हर पल
मान-अपमान को
सहना
क्या यही औरत की
धर्म कही जाती है.
आए दिन
माथे पर लाल दमकती
बिंदिया, कुमकुम,
हाथों में
सुन्दर चुड़ियां पहनने वाली
यही औरत !
जब पहनती है,
विधवा का चोला
अपने सारे सुखों को
कैसे,
पल में छोड़ देती है.
अपने बच्चों,परिवार
की खुशी में
अपनी जवानी
और अपने सारे सपनों को
बीती रात की तरह
भूल जाती है.
पहाड़ों सी सहनशील
कल तक की
सबला को अबला बनाकर
पति के मौत का
कारण बता
पल-पल कोसी जाती है.
सोचो !
मेरे सपनों को
बदलते देखो अपनों को
विधवा का नाम देकर
जीवनभर के लिए
हल्के रंगों
या सफेद वस़्त्रों का
जीते जी औरत को
कफन ओढ़ा दिया जाता है.
पति के साथ
साज-श्रृंगार में रहने वाली
पति, न हो !
तो
विधवा का ताज
पहना दी जाती है.
खुशियों में खोई रहकर
सपनों के मंदिर सजाने वाली
ये, क्या ?
समाज, क्यूं नहीं सोचता
हमारे वर्तमान पर,
पति न रहे, तो जीवन भर
विधवा के रूप में
अकेलेपन की सजा
दिन के उजाले में भी
बंद कमरे में आंसू बहाती है.
कल की बेटी
किसी की पत्नी बनी
फिर क्या ?
दुनियां वालों
मैं अबला हूं,
एक सवाल मेरा भी है
गर कल मैं न रही
तो ये
पुरूषों के साथ क्यों नहीं ?
यही सवाल
औरतों के जेहन में उठता होगा
लेकिन, ये क्या
अंधविश्वासी व रूढ़ीवादी
रीति-रिवाजों की आड़ में
मौन रहकर
समाज के ठेकेदारों से
ये ! प्रश्न पुछ न पाती
आखिर क्यों ?
वो औरत इंसान नहीं......?
शायद !
यही औरत के जीवन की
संक्षिप्त कहानी है.
----मुरली मनोहर श्रीवास्तव
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