मासूम के कंधांे पर बोझ
कई मासूम स्कूल के बस्ता उठाने की उम्र में मजदूरी करते फिरते हैं। और पढ़-लिख कर कुछ कर दिखाने का सपना इन्ही बोझ के तले दब कर दम तोड़ देता है। ऐसा ही कुछ हुआ है गोविन्दपुर गांव के मिथिलेष के साथ।
जब इसकी उम्र के दूसरे बच्चे स्कूल जा रहे होते हैं, तो यह मासूम बोझ ढो रहा होता है। खेलने-कूदने की उम्र में ही इसके कंधों पर परिवार का बोझ आ पड़ा है। फुलवारी प्रखंड के गोविन्दपुर गांव के रहने वाले इस लड़के का नाम मिथिलेश है। मात्र तेरह वर्ष की उम्र में परिस्थिति ने इसे बुजुर्ग बना दिया।
मिथिलेश ने भी बचपन में सपना देखा था कि पढ़ लिख कर अच्छी नौकरी करेगा। लेकिन उसके पिता की बीमारी ने उसके सपनों को तोड़ दिया। बचपन में ही उसके कंधों पर पूरे परिवार का बोझ आ गया। बीमारी ने उसके पिता को इतना लाचार बना दिया कि परिवार का सहारा बनना तो दूर, अब खुद उन्हें सहारा चाहिए। विपत्ति आयी तो सभी संबंधियों ने मुंह मोड़ लिया। सरकारी सहायता की आशा थी, लेकिन अफसरों की लापरवाही के चलते वह भी नहीं मिली।
हर बच्चे का सपना होता है कि वह पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी करे। लेकिन मजबूरी ने मिथिलेश को मजदूर बना दिया। ऐसे में किसी बच्चे को स्कूल जाते देखना उसे किसी सपने से कम नहीं लगता। उसकी इच्छा है कि सरकार उसकी मदद करे और उसका सपना भी साकार हो।
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