विलुप्त हो रहे हैं आदिवासी
झारखंड जिस तरह से खनिज सम्पदा के नाम से विख्यात है ठीक उसी तरह आदिवासी जातियों और जनजातियों के लिए भी जानी जाती है । सबसे बड़ी बात तो ये है कि आज से 9 साल पहीले राज्य का गठन जिन आदिवासियों के नाम पर हुआ था, आज वही हासिए पर हैं। इहां तक कि कुछ तो विलुप्ती के कगार पर भी हैं।
मुझे तो अपनों ने लूटा,गैरों में कहां दम था मेरी कश्ती वहीं डूबी जहां पानी कम था। आजकल यही कह रहे हैं झारखंड के आदिवासी। कहें भी क्यों नहीं जिस राज्य के सभी मुख्यमंत्री आदिवासी ही रह चुके हैं। उस राज्य में आदिवासी के हितों को अनदेखा कर दिया जाए तो सबके मन में असंतोष का बीज बो ही देता है।
हाालत ये है कि बिरहोर नाम से जाने जानी वाली एक जनजाति के अब गिने चुने लोग ही बचे हैं। अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है।
यूं तो सरकार हर साल आदिवासियों के हितों के लिए कई योजनाएं बनाती है और इन योजनाओं पर करोड़ो खर्च भी किए जाते हैं। इसके बावजूद भी झारखंड में रहनेवाले आदिवासी और जंगलों में रहने वाले जनजातियों की हालत में कोई सुधार नहीं दिख रहा है। अगर सच में सरकार आदिवासियों के हित में कुछ करना चाहती है तो जरूरत है ठोस पहल की।
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