गुम हो रहा दूल्हों का मेला
दूल्हों के मेले के रूप में दुनिया में अपनी अलग पहचान रखने वाले मधुबनी के सौराठ सभा की रौनक अब खत्म होने लगी है।अब यहां भावी दुल्हांे का जमघट नहीं लगता। आधुनिकता की चकाचैध में यहां की अनोखी परंपरा दम तोड़ती जा रही है।
यह है सभागाछी। मधुबनी के सौराठ गांव के इस सभागाछी का अपना इतिहास रहा है। अपनी संस्कृति रही है।इन पेड़ों की ठंठी
छांव में वैवाहिक रिष्ते तय होते थे। जून से लेकर जुलाई माह तक इस गाछी की रौनक देखते बनते थी।यहां मिथिला के भावी दूल्हांे का जमघट लगता था अैर कन्या पक्ष वाले यहीं तलाषते थें अपनी बिटियां के सपनों का राजकुमार। डाॅक्टर, प्रोफेसर हो या फिर किसान हर तरह के षादी योग्य लड़के यहंा जुटते थे। मिथिलावासियों के वैवाहिक रिष्तों की गाठ यहीं
पड़ती थी पर बदलते वक्त की मार से यह परंपरा भी बच न सकी आज इस सभागाछी के सौराठ सभा में अब इक्के- दुक्के लोग ही जुटते हैं।
दरअसल सौराठ सभा का उद्देष्य लड़की वालों को वर खोजने की परेषानी से बचाने के साथ ही दहेज मुक्तषादी का भी था।इस परंपररा की षुरूआत मिथिला के षासक रहे नान्य देव ने की थी।सन् 1310 में मिथिला नरेष हरिसिंह देव ने लिखित पंजी की प्रथा षुरू करवाई।इस पंजी में मिथिला के हर परिवार के पुरखों की जानकारी रहती थी। इसके लिए दर्जन भर पंजीकार थे जोघुम-घुम कर यह जानकारी कलमबंद करने का काम करते थें।
आधुनिकता की अंधी दौड़ में अब लोग यहां आना अपनी तौहीन मानते हैं। लोगी के इसी सोच का ग्रहण इस अनोखे मेले पर लग चुका है। अगर यही हाल रहा तो साल दो साल में सौराठ सभा बस इतिहास बनकर रह जाएगा।
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