कहवां भुलाइल मोतिया हो रामा............
(बिस्मिल्लाह खां के पुण्यतिथि 21 अगस्त पर विषेष)
---मुरली मनोहर श्रीवास्तव
एही मटिया में भुलाइल हमार मोतीया हो रामा.......जैसी अनेको लोक परंपरा वाली भोजपुरी गीत पर शहनाई की धुन को छेड़ने वाले शहनाई उस्ताद को भोजपुरी के विकास का संवाहक कहा जा सकता है। संसार के कोने-कोने में अपनी शहनाई की स्वर लहरियां बिखेरने वाले बिस्मिललाह खां आज भले हीं हमारे बीच नहीं हैं। मगर उनके द्वारा सात सुरों की संगिनी में छेड़ी गई स्वर लहरियां आज भी सबके जेहन में रच बस गई है।
आपसे हमको बिछड़े हुए एक जमाना बीत गया.......और आज भी दिल को दहला देता है वो बीता पल। 21 अगस्त 2006 को रात के 2-20 मिनट पर वाराणसी के हेरिटेज अस्पताल में शहनाई की सुर थम गई। हमेषा को सो गये षहनाई के पीर उस्ताद बिस्मिल्लाह खां। रह गई तो बस उनकी यादें और उनके बजाए धुन।
भोजपुरी गीत और मिर्जापुरी कजरी को बाखूबी शहनाई पर बजाने वाले उस्ताद गंगा-जमनी संस्कृति, हिन्दू-मुस्लिम दोनों धर्मों के बीच के सेतू बड़े सहज भाव के थे। जिन्हें अपने वतन से बेहद प्यार था। तभी तो लाख विदेषों में बसने की बातें भी उस सख्श को बिचलित नहीं कर पाई। बिहार में जन्में, उत्तर प्रदेष से पूरे विष्व को शहनाई की धुनों से परिचित कराने वाले शहनाई उस्ताद बिस्मिल्लाह खां पर आज भले ही जो राजनीतिक गोटियां सेंकी जाए। मगर वो महापुरुष उन दुर्भावनाओं से परे थे।
21 मार्च 1916 को गरीबी और जलालत की जिन्दगी जीने वाले उस्ताद का जन्म बिहार के बक्सर जिले के डुमरांव में हुआ था। कमरुददीन को अब्बा जान पैगम्बर बख्श उर्फ बचई मियां बड़ा अधिकारी बनाना चाहते थे। मगर इन्हें पढ़ाई में कोई रुची नहीं थी। तभी तो महज चैथी तक ही किसी तरह पढ़ाई कर पाए। अब्बा जान डुमरांव राज में दरबारी वादक हुआ करते थे। घर में इस माहौल को देखकर- सुनकर बालक कमरुद्दीन एक दिन शहनाई का बादशाह बन बैठा। दस वर्ष की अवस्था में अपने मामू अली बख्श के साथ वाराणसी जा पहुंचे। 14 वर्ष की उम्र में Allahabad me शहनाई वादन कर पीछे मुड़कर देखने का मौका ही नही मिला। अपनी जिन्दगी में कमरुद्दीन ने बहुत उतार-चढ़ाव देखी। वक्त से पहले मामू अली बख्स की मौत ने इन्हें झकझोर कर रख दिया। इस दर्द से उबर भी नहीं पाए थे कि बड़े भाई शम्सुद्दीन की मौत से टूट गए। इनकी शहनाई धुन छेड़ना भुल गई। बस रह गई इनके पास तो दर्द भरी यादें.....
उस्ताद के उपर पुस्तक लिखने के दरम्यान मुझे उनके सानिध्य में काफी वक्त बिताने का मौका मिला। बहुत कुछ सीखने को मिला। फर्ष से अर्ष तक के सफर तय करने वाले उस्ताद ने गरीबी में भी अपने पैतृक जमीन को नहीं बेची। लेकिन इस वक्त उनका पैतृक जमीन बेचे जाने की चर्चा सुनने में आ रही है। इसमें कितनी सच्चाई है यह तो नहीं पता। लेकिन यह चर्चा आम जनता से लेकर सरकार तक के मुंह पर किसी थपड़ से कम नही है। लालू से लेकर नीतीष कुमार ने सिर्फ घोषणाएं की। आज वो बंजर पड़ी है......विरान पड़ी खंडहर वाली वो जमीन आज भी अपने शहनाई के पीर को पुकार रही है।
(लेखक उस्ताद पर पुस्तक लिख चुके हैं)
मो.नं.9234929710] 9430623520
No comments:
Post a Comment