Thursday, May 14, 2009

गुम होते बैलों के घूंघरु की आवाज
समय के साथ सब कुछ बदल रहा है। इस आधुनिकता के दौर में तो जैसे बैलों के गले में बंधे घूंघरुओं की आवाज अब जीवन का राग नहीं सुना रही है। गले में बंधे घूंघरु की रुनझुन शहरों की कौन कहे ग्रामीण इलाकों में भी गुम होने लगे हैं। ऐसा लगता है कि इस मशीनी युग में बैलों को हमेशा के लिए खेतों से बाहर कर दिया गया है। ( सजन रे झुठ मत बोलो खुदा के पास जाना है.....) ये हैं गरीब किसानों के रोजी-रोटी से जुड़े श्रम के प्रतीक बैल। इनकी संख्या दिनोंदिन घटती जा रही है। खेतों में चल रहे टैªक्टर, बोरिंग आदि ने इनको बुचड़खानों तक पहुंचा दिया है। ये बात केवल शहरों तक की नहीं है। मशीनी युग में शहरों की बात कौन करे ग्रामीण इलाकों में भी कृषि कार्य के अलावा वजन ढोने, पटवन के लिए बैलों को अलग कर मशीन से हीं काम लिया जा रहा है। वो भी क्या जमाना था आज से पांच दशक पहले बछड़े के जन्म पर किसानों के परिवारों में खुशीयां मनती थी। लगता था जैसे उनके घर बेटा हीं पैदा हुआ है। लेकिन आज जस्ट उसके उल्टा हो रहा है। जहां वर्ष 1951 में 75 प्रतिशत खेती कार्य बैलों से कराया जाता था। वह अब घटकर 30 प्रतिशत रह गया है। पिछले डेढ़ दशकों में देश में मौजूद कुल बैलों कि संख्या 7 करोड़ 25 लाख से घटकर 6 करोड़ 30 लाख रह गई है। इनकी संख्या में 1987 के बाद तेजी से कमी आई है। आज देश मेें इनकी संख्या साढ़े चार करोड़ के आस-पास रह गई है। कृषि विशेषज्ञों की मानंे तो दो तीन दशक में इनकी संख्या घटकर लाखों तक रह जाएगी। भारतीय संस्कृति में श्रम के सबसे बड़े प्रतीक बैलों से खेती के अलावा माल ढोने का भी काम कराया जाता था। लेकिन कृषि प्रधान देश के आधार रहे बैलों को मशीन ने बेचारा बना दिया है। अब इनके अस्तित्व भी खतरे में पड़ गए हैं। समय रहते इन बैलों के संरक्षण पर ध्यान नहीं दिया गया तो वो दिन दूर नहीं जब बैल एक विलुप्त प्रजाति में शामिल होकर रह जाएंगे।-----मुरली मनोहर श्रीवास्तव

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HIMMAT SE KAM LOGE TO ZMANA V SATH DEGA...HO GAYE KAMYAB TO BCHACHA-BCHCHA V NAM LEGA.....MAI EK BAHTE HWA KA JHOKA HU JO BITE PAL YAD DILAUNGA...HMESHA SE CHAHT HAI KI KUCHH NYA KAR GUZRNE KI...MAI DUNIA KI BHID ME KHONA NHI CHAHTA....