Sunday, May 24, 2009

दुनियां करे सवाल
( मशहूर शायर,गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी की 9 वीं पुण्यतिथि )
दुनियां में बहुत लोग आते हैं, लेकिन कुछ लोगों के कारनामे उनकी याद अक्सर दिलाते हैं। उन्हीं हस्तियों में मशहूर शायर, गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी को भला कैसे भुलाया जा सकता है। उनके लिखे गीत बरबस दिल को छु जाते हैं।
(एक दिन बिक जाएगा माटी के मोल जग में रह जाएगा प्यारे तेरे बोल......)
जिन्दगी की सच्चाई को बयां करता मजरुह सुल्तानपुरी के कलाम में जिंदगी के अनछुए पहलुओं से रूबरू कराने की जबरदस्त कुव्वत थी। असरार-उल-हसन खान उर्फ मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म वर्ष 1919 में उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर में हुआ था। प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा हासिल करने के बाद उन्हांेने लखनऊ से यूनानी की पढ़ाई कर हकीम बन गए। लेकिन उनके अंदर का शायर जाग उठा। मुशायरा में भाग लेने लगे, लोगों की तारीफ क्या मिली। इनकी दुनियां हीं बदल डाली और हकिमी छोड़ 1945 में मुम्बई में एक मुशायरे में कलाम क्या पेश की सब वाह! वाह! कर उठे। उसमें फिल्म निर्माता ए।आर।करदार भी थे। जिन्होंने अपनी फिल्मों में लिखने की पेशकश की। फिर क्या 1946 में शाहजहां के लिए ’जब दिल हीं टूट गया....’ ने तो धूम मचा दी। उसके बाद अंदाज और आरजू फिल्म ने इन्हें गीतकार के रूप में स्थापित कर दिया। 1949 में एक दिन बिक जाएंगे माटी के मोल....के रूप में जिन्दगी की सच्चाई को बयां करता नग्मा रच डाली।
( ...चाहूंगा मै तूझे सांझ-सवेरे आवाज मैं न दूंगा.....)
मजरूह की कलम की स्याही नज्मों की शक्ल में ऐसी गाथा के रूप में फैली जिसने उर्दू शायरी को महज मोहब्बत के सब्जबाग से निकालकर दुनियां के दीगर स्याह सफेद पहलुओं से भी जोड़ा। इन्हें सर्व श्रेष्ठ गीतकार का फिल्म फेयर अवार्ड दिया गया था। बाद में ये पहले गीतकार हैं जिन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से भी नवाजा गया। मजरूह ने फिर वही दिल लाया हूं, तीसरी मंजिल, बहारों के सपने, कारवां हम किसी से कम नहीं, कयामत से कयामत तक, जो जीता वही सिकंदर, अकेले हम अकेले तुम और खामोशी द म्यूजिकल के जरिये उन्होंने फिल्म जगत को एक से बढ़कर एक गीत दिये। सरकार विरोधी लिखने की वजह से कुछ दिन जेल में भी गुजारने पड़े। उन्होंने जिन्दगी को एक दार्शनिक के नजरिये से देखा और उर्दू शायरी को नया आयाम दिया।
अपने गीतों के जरिए लोगों को जिन्दगी के अहम पहलुओं पर सोचने को मजबूर करने, मोहब्बत की ताजगी भरी छुअन का एहसास कराने और जीवन के अनछुए पहलुओं को गीतों और गजलों में पिरोने वाले मजरूह 24 मई 2000 को ’माटी के मोल बिक गए.’........और चले गए हमे अपनी यादों में बसाकर। जब उनके लिखे गीत बजते हैं तो दिल से निकली कशीश लगती है।

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HIMMAT SE KAM LOGE TO ZMANA V SATH DEGA...HO GAYE KAMYAB TO BCHACHA-BCHCHA V NAM LEGA.....MAI EK BAHTE HWA KA JHOKA HU JO BITE PAL YAD DILAUNGA...HMESHA SE CHAHT HAI KI KUCHH NYA KAR GUZRNE KI...MAI DUNIA KI BHID ME KHONA NHI CHAHTA....