बंजर भूमि से सोना उपजा
अब बात करते हैं जीवटता का पर्याय बन चुके एक ऐसे समुदाय की, जो बंजर भूमि से सोना उपजा रहा है। यह समुदाय जब यहां आया था तो उसके पास कुछ नहीं था, लेकिन आज अपनी मेहनत की बदौलत नया मुकाम हासिल कर लिया है। जी हां, हम बात कर रहे हैं गिरमिटिया की। गिरमिटिया यानी ऐसे लोग, जो बर्मा से खाली हाथ यहां आये थे। आज वे अपनी मेहनत की बदौलत सीमांचल के हजारों हेक्टेयर जमीन में मूंगफली उपजा कर अच्छी कमाई कर रहे हैं।
खेतों में लहलहाती ये फसल दास्तान है एक जीवटता की। बर्मा देशी शरणार्थियों ने लंबे समय तक बंजर को उपजाऊ बनाने के लिए अपना पसीना बहाते रहे। इनकी मेहनत आखिरकार रंग लाई। कोसी की बाढ़ ने इन इलाकों को बालू से पाटकर बंजर बना दिया, लेकिन इन लोगों ने इसे अपनी मेहनत की बदौलत ना इसे सिर्फ उपजाऊ बनाया, बल्कि यहां कृषि को एक नया आयाम दिया। ये लोग पूरे इलाके की हजारों हेक्टेयर जमीन में मूंगफली की खेती करते हैं। जिससे इनलोगों की अच्छी खासी कमाई हो जाती है।
यहां एक एकड़ में करीब बारह क्विंटल मूंगफली उपजती है। जून के अंतिम सप्ताह से यहां व्यवसायी जुटने लगते हैं। यहां पर मूंगफली खरीदने के लिए गुवाहाटी, कोलकाता और सिलीगुड़ी से व्यवसायी आते हैं। स्थानीय कृषि अधिकारी के अनुसार इन लोगों ने मूंगफली की खेती कर कृषि को एक नई दिशा दी है।
इन लोगों के संघर्ष की दास्तान बहुत पुरानी है। इनके पूर्वज कमाने के लिए कभी बर्मा गये थे और वहीं रह गये, लेकिन सत्तर के दशक में ये लोग वापस आ गये। बर्मा काॅलोनी के रहने वाले रामप्यारे वर्मा की माने तो बर्मा में जब नागरिकता, उच्च शिक्षा के अधिकार और कई तरह की परेशानियां होने लगी तो वहां के राजदूत की मदद से ये लोग यहां तक पहुंचे। उस समय की इंदिरा गांधी सरकार ने इन्हें पूर्णिया, अररिया और किशनगंज के अलग-अलग इलाकों में बसाया। सरकार की ओर से इन्हें प्रति परिवार तीन एकड़ सरकारी जमीन भी दी गई।
बर्मा काॅलोनी के ये किसान अपनी मेहनत से बंजर माटी पर सोना उपजा रहे हैं। उनकी मेहनत ना सिर्फ दूसरे किसानों बल्कि अन्य लोगों के लिए भी प्रेरणा स्रोत है।
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