Sunday, February 24, 2013

भोजपुरी सिनेमा का स्वर्णिम वर्षगांठ मना





आज से पचास साल पूर्व उत्तर भारत के लोकप्रिय और मृदुल भाषा ‘भोजपुरी’को पहला सिनेमा “गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैईबो” के रूप में मिला था. इस फिल्म के निर्माता विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी द्वारा २१ फरवरी १९६३ को पटना के सदाकत आश्रम में भारत के प्रथम राष्ट्रपति व देश रत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद को समर्पित किया गया था. वहीँ उसके अगले दिन यानि २२ फरवरी १९६३ को पटना के वीणा सिनेमा में इस अद्भुत फिल्म का प्रीमियर हुआ था. लिहाजा आज हम स्वर्णिम वर्ष के पड़ाव पर खड़े हैं. इस उपलक्ष में डॉ. प्रसाद को समर्पित किये जाने के ठीक पचास साल पुरे होने पर सिने सोसाइटी ,पटना के मिडिया प्रबंधक रविराज पटेल के सफल नेतृत्व में सिने सोसाइटी , पटना और पाटलिपुत्र फिल्म एंड टेलीविजन एकेडेमी, पटना के संयुक्त तत्वावधान में एक संगोष्ठी आयोजित की गई, जिसका विषय “भोजपुरी सिनेमा के अतीत,वर्तमान और भविष्य” था. इस अवसर पर सिने सोसाइटी ,पटना के अध्यक्ष आर. एन. दास (अवकाशप्राप्त भा.प्र.से.), वरिष्ठ फिल्म पत्रकार आलोक रंजन , अभिनेता डॉ. एन . एन . पाण्डेय , वरिष्ठ फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम , गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैईबो के फिल्म वितरक वयोवृद्ध आनंदी मंडल , युवा फिल्म निर्देशक नितिन चंद्रा ( मुंबई से वीडियो कोंफ्रेंस के जरिये ),मशहूर कवि आलोक धन्वा , फिल्म संपादक कैप्टन मोहन रावत मुख्य वक्ता थे, जबकि राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त छायाकार प्रो.हेमंत कुमार ने मंच संचालन किया.
अपने उदगार में भारतीय प्रशासनिक सेवा से अवकाश प्राप्त और सिने सोसाइटी,पटना के अध्यक्ष आर. एन. दास ने कहा की ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैईबो’ के माध्यम से भोजपुरी भाषा को एक नई उर्जा मिली थी. शुरुआत बहुत ही समृद्ध रहा. वर्तमान में भटकाव है, जिसमें बदलाव की आवश्यकता है. श्री दास ने रविराज पटेल द्वारा ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैईबो’ पर किये गए शोध पर बल देते हुए, उसमें शामिल दुर्लभ जानकारियों से अवगत कराया. श्री पटेल ने इस फिल्म पर एक शोधात्मक पुस्तक लिखी है, जो सिने सोसाइटी के तहत प्रकाशनाधीन है. वहीँ दो दिवसीय आयोजन का श्रेय देते हुए श्री दास ने रविराज पटेल को बधाई देते हुए आभार प्रकट किया.
लगभग तीस वर्षों से मुंबई में फिल्म पत्रकारिता कर रहे अलोक रंजन ने कहा भोजपुरी फिल्म ,भोजपुरी से शुरू हुई, कुछ समय बाद भाजी-पूरी हो गई और अब भेल-पूरी हो गई है. श्री रंजन ने यह भी कहा की भोजपुरी सिनेमा में अश्लीलता का मुख्य कारण भोजपुरी सिनेमा के तथाकथिक निर्माता ,निर्देशक हैं. भोजपुरी में ९० प्रतिशत निर्देशक जाली है. उन्हें सिनेमा के न इतिहास पता है ,न ही भूगोल फिर तो वह जो चीजें बनायें वह गोल मटोल तो होगा ही. इसे बर्बाद करने में फिल्म वितरकों का भी बहुत लम्बा हाथ है. वर्तमान दशक में जो भोजपुरी फिल्मों का बाढ़ आया है ,उसमें एक लम्बा गैप था. मनोज तिवारी एक लोकप्रिय गायक हो चुके थे. प्रयोग के तौर पर “ससुरा बड़ा पैसा वाला” आई ,जिसे एक भोजपुरी गानों का संकलन कहना ज्यादा उचित है.उनके फैन उसे भारी सख्या में देखे और एक कमाउ दौर शुरू हुआ. एक नया ट्रेंड भी शुरू हुआ, भोजपुरी सिनेमा के नायक गायक होने लगे.जबकि यह दौर सिनेमा के आरंभिक समय में था. गायक ही नायक होते थे ,क्यूँ की सिनेमा में पार्श्वगायन की तकनीक मज़बूत नहीं थी. इस क्रम में रवि किशन एक अपवाद है, जो गायक नहीं है.
राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम ने अपने वक्तव्य में प्रमुखता से इस बात को रखा की आज के भोजपुरी सिनेमा अपने दायरे को समझ ही नहीं पा रहा है. भोजपुरी सिनेमा में यह कतई नहीं होना चाहिए की नायिका बिकनी पहन कर समुंदर किनारे रोमांस कर रही हो. यह भोजपुरी संस्कृती में कभी संभव हो ही नहीं सकता. यह तभी संभव है जब दुनिया जलप्लावल हो जाएगी. दूसरी बात यह की हम भोजपुरी को बिना देखे गाली देते हैं .जिससे मैं सहमत नहीं हूँ. सिनेमा देख कर उस पर आपत्ति जताएं या उसकी निंदा करें.
कई हिंदी व भोजपुरी फिल्मों में अभिनय कर चुके एवं पटना विश्वविद्यालय से भौतकी विभागाध्यक्ष से अवकाशप्राप्त प्रोफ़ेसर डॉ एन एन पाण्डेय ने कहा की वर्तमान भोजपुरी सिनेमा अश्लीलता के दौर से गुजर रहा है. उसके नाम तक सुनने लायक नहीं होते हैं. यहाँ के निर्देशकों में कोई मानदंड नहीं है.
प्रसिद्ध कवि एवं साहित्यकार आलोक धन्वा ने कहा की आज सिनेमा ही साहित्य है, जबकि भाषा एक महानदी है. उसी का एक अंश भोजपुरी सिनेमा भी है. मैं निराशावादी व्यक्ति नहीं हूँ, इसलिए यह उम्मीद करता हूँ की इस भटकाव में बदलाव भी ज़रूर होगी.
मुंबई से विडिओ कांफ्रेंस के जरिये “देसवा” फेम युवा फिल्म निर्देशक नितिन चंद्रा ने अपने संबोधन में कहा की आज हम सच्चा बिहारी रह ही नहीं रह गए हैं .हम अपने संस्कृती से बिलकुल कट चुके हैं.हमारा युवा वर्ग मानसिक तौर पर पलायन कर चूका है . वह रहते तो हैं बिहार के विभिन्न इलाकों में परन्तु अन्दर ही अन्दर वे दिल्ली, पुणे ,मुंबई जैसे मेट्रो सिटी में रचे बसे रहते हैं. वह अपनी मातृभाषा में बात करने से कतराते हैं. अपनी भाषा को वे हीन भावना से देखते हैं. वैसे में कोई भी हमारे संस्कृती के साथ खेलेगा ही. हम उसके लिए आवाज़ नहीं उठाते. अब ऍफ़ एम रेडियो की ही बात लीजिये, पंजाब में पंजाबी गाने बजते हैं, बंगाल में बंगाली गाने , महाराष्ट्र में मराठी जबकि पटना में भोजपुरी , मगही , मैथली ,बज्जिका ,अंगिका छोड़ कर सभी गाने बजते हैं. मैं इसके लिए संघर्ष भी कर रहा हूँ. श्री चंद्रा ने यह भी कहा की बिहार के विभिन्न भाषाई इलाकों में सरकार क्षेत्रीय भाषाओँ की पढाई शुरू करवाए,बचपन से ही उसे अपने धरोहर का पाठ पढाये ,तब जा के हम समझ पाएंगे की हमारी संस्कृती यह ,भाषा यह, तो सिनेमा भी इसी तरह के होने चाहिए. उन्हें जागरूक करने की ज़रूरत है. अच्छे फिल्मों के वितरक नहीं मिलते हैं, यह एक अगल चिंता का विषय है. बिहार में सिनेमा घरों का आभाव है. हमें सभी समस्यों पर आगे आना चाहिए.
सेना व बैंक अधिकारी से अवकाश प्राप्त एवं फिल्म संपादक कैप्टन मोहन रावत ने कहा की आज पटना में सभी तरह के सुविधा उपलब्ध रहने के बाबजूद फिल्मकार यहाँ काम नहीं करते. अगर करते भी है तो एजेंट के माध्यम से गुजरती , मराठी या पंजाबी लोगों के साथ, जिनके अन्दर न बिहार है, न यहाँ की संस्कृती है और न ही भाषा की समझ. कोई पंजाबी आदमी भोजपुरी फिल्म कैसे बना सकता है ? यह संभव ही नही है.उसके अन्दर सिर्फ पैसा चलता है, वह कामुकता को बेच कर पैसे कमाना चाहता है, और वह उसमें सफल भी है.
सन १९६३ में प्रथम भोजपुरी फिल्म “गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैईबो” के फिल्म वितरक वयोवृद्ध एवं कला मर्मज्ञ आनंदी मंडल ने उस दौर को याद करते हुए कहा की गंगा मैया ...भोजपुरी भाषा ,संस्कृती , सामाजिक विकृति को दूर करने हेतु एक नई दिशा दी थी. लेकिन आज हम उसे भूल चुके हैं. आज हम स्वास्थ्य मनोरंजन के पक्षधर नहीं रह गए हैं.उन्होंने गंगा मैया से जुडी अनेकों यादों को ताज़ा और साझा किया.
वहीँ अनेकों हिंदी भोजपुरी फिल्मों के गीतकार एवं पटकथा , संवाद लेखक विशुद्धानन्द ने कहा की आज भोजपुरी फिल्म उद्योग में भोजपुरी भाषी लोगों का आभाव है. वे अधिकांश भोजपुरी फिल्मों के दृश्यों व गानों के वास्तविक भाव से अलग बताया. उन्होंने यह भी कहा की भोजपुरी में काम करने वाले कलाकारों को भोजपुरी बोलना तक नहीं आता, न उसका मतलब समझते हैं वे. फिर उसका स्वरुप बिगड़ना स्वाभाविक है. इस अवसर पर और कई गणमान्य लोगों ने भी अपना विचार व्यक्त किया.
उक्त कार्यक्रम पटना के पाटलिपुत्र फिल्म्स एंड टेलीविजन एकेडेमी परिसर में संस्कृतीकर्मी युवा शोधार्थी रविराज पटेल के गहन प्रयास पर आयोजित थी.
श्री पटेल का प्रयास सिर्फ वहीँ तक नहीं रहा बल्कि अलगे दिन यानि २२ फरवरी २०१३ को ठीक भोजपुरी सिनेमा के पचास साल पुरे होने के उपलक्ष में सिने सोसाइटी ,पटना एवं बिहार संगीत नाटक आकादमी के सौजन्य से राजधानी पटना के प्रेमचंद रंगशाला में शाम ५ बजे “गंगा मैय तोहे पियरी चढ़ैईबो” का पुनः प्रदर्शन करवाया. इस मौके पर पटना विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. शम्भुनाथ सिंह, प्रभात खबर समाचार पत्र के पटना संस्करण के संपादक स्वयं प्रकाश, बिहार संगीत नाटक आकादमी के सचिव विभा सिन्हा, फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम,अभिनेता डॉ. एन एन पाण्डेय के आलावा पूरा रंगशाला दर्शकों के लबलब रहा. इस अवसर पर पटना विश्वविद्यालय के कुलपति से आर एन दास ने पटना विश्वविद्यालय में नियमित क्लासिक फिल्मों का प्रदर्शन करवाने का आग्रह किया.जिस पर कुलपति ने आश्वाशन भी दिया. फिल्म प्रदर्शन होने के पूर्व गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैईबो पर शोध कर चुके रविराज पटेल ने प्रथम भोजपुरी सिनेमा कैसे बनी इसके बारे में दर्शकों को संक्षेप में बताया. इस समारोह में मंच संचालन रंगकर्मी कुमार रविकांत कर रहे थे.
फिल्म देखते समय दर्शक भावविभोर थे .वे कभी हंस रहे थे तो कभी रो भी रहे थे. उन्हें यह विश्वास ही नहीं हो रहा था, की वह एक भोजपुरी सिनेमा देख रहे हैं. इस शानदान आयोजन के लिए उपस्थित तमाम गणमान्य लोगों से लेकर आम दर्शकों ने कार्यक्रम संयोजक रविराज पटेल को विशेष बधाई दी.

Wednesday, February 13, 2013

सात शहीद महान बिहारी सपूत-



                     ११ अगस्त, १९४२ को सचिवालय गोलीकाण्ड बिहार के इतिहास वरन्‌ भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का एक अविस्मरणीय दिन था । पटना के जिलाधिकारी डब्ल्यू. जी. आर्थर के आदेश पर पुलिस ने गोलियाँ चलाने का आदेश दे दिया । पुलिस ने १३ या १४ राउण्ड गोलियाँ चलाईं, इस गोलीकाण्ड में सात छात्र शहीद हुए, लगभग २५ गम्भीर रूप से घायल हुए । ११ अगस्त, १९४२ के सचिवालय गोलीकाण्ड ने बिहार में आन्दोलन को उग्र कर दिया 

सचिवालय गोलीकाण्ड में शहीद सात महान बिहारी सपूत-

. उमाकान्त प्रसाद सिंह- राम मोहन राय सेमीनरी स्कूल के १२वीं कक्षा का छात्र था । इसके पिता राजकुमार सिंह थे । वह सारण जिले के नरेन्द्रपुर ग्राम का निवासी था ।

. रामानन्द सिंह- ये राम मोहन राय सेमीनरी स्कूल पटना के ११ वीं कक्षा का छात्र था । इनका जन्म पटना जिले के ग्राम शहादत नगर में हुआ था । इनके पिता लक्ष्मण सिंह थे ।

. सतीश प्रसाद झा- सतीश प्रसाद का जन्म भागलपुर जिले के खडहरा में हुआ था । इनके पिता जगदीश प्रसाद झा थे । वह पटना कालेजियत स्कूल का ११वीं कक्षा का छात्र था । सीवान थाना में फुलेना प्रसाद श्रीवास्तव द्वारा राष्ट्रीय झण्डा लहराने की कोशिश में पुलिस गोली का शिकार हुए ।

. जगपति कुमार- इस महान सपूत का जन्म गया जिले के खराठी गाँव में हुआ था ।

. देवीपद चौधरी- इस महान सपूत का जन्म सिलहर जिले के अन्तर्गत जमालपुर गाँव में हुआ था । वे मीलर हाईस्कूल के ९वीं कक्षा का छात्र था ।

. राजेन्द्र सिंह- इस महान सपूत का जन्म सारण जिले के बनवारी चक ग्राम में हुआ था । वह पटना हाईस्कूल के ११वीं का छात्र था ।

. राय गोविन्द सिंह- इस महान सपूत का जन्म पटना जिले के दशरथ ग्राम में हुआ । वह पुनपुन हाईस्कूल का ११वीं का छात्र था ।

नमक सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा आन्दोलन,
साइमन कमीशन वापस जाओ आन्दोलन,
बिहार में स्वराज पार्टी
चौरा-चौरी काण्ड से दुःखी होकर गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन को समाप्त कर दिया फलतः देशबन्धु चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू और विट्‍ठलभाई पटेल ने एक स्वराज दल का गठन किया
असहयोग आन्दोलन
खिलाफत आन्दोलन
होमरूल आन्दोलन
चम्पारण सत्याग्रह आन्दोलन
बिहार में मजदूर आन्दोलन
बिहार में किसानों के समान मजदूरी का भी संगठन बना । बिहार में औद्योगिक मजदूर वर्ग ने मजदूर आन्दोलन चलाया । १९१७ ई. में बोल्शेविक क्रान्ति एवं साम्यवादी विचारों में परिवर्तन के साथ-साथ प्रचार-प्रसार हुआ । दिसम्बर, १९१९ ई. में प्रथम बार जमालपुर (मुंगेर) में मजदूरों की हड़ताल प्रारम्भ हुई । १९२० ई. में एस. एन. हैदर एवं व्यायकेश चक्रवर्ती के मार्गदर्शन में जमशेदपुर वर्क्स एसोसिएशन बनाया गया । १९२५ ई. और १९२८ ई. के बीच मजदूर संगठन की स्थापना हुई । सुभाषचन्द्र बोस, अब्दुल बारी, जयप्रकाश नारायण इसके प्रमुख नेता थे ।
बिहार में संवैधानिक प्रगति और द्वैध शासन प्रणाली
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन एवं नव बिहार प्रान्त के रूप में गठन
रेग्यूलेटिंग एक्ट १७७४ ई. के तहत बिहार के लिए एक प्रान्तीय सभा का गठन किया तथा १८६५ ई. में पटना और गया के जिले अलग-अलग किये गये ।
जून, १९४५ में सरकार ने राजनैतिक गतिरोध को दूर करते हुए एक बार फिर मार्च, १९४६ ई. में बिहार में चुनाव सम्पन्‍न कराया गया । विधानसभा की १५२ सीटों में कांग्रेस को ९८, मुस्लिम लीग को ३४ तथा मोमीन को ५ सीटें मिलीं । ३० मार्च, १९२६ को श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस द्वारा अन्तरिम सरकार का गठन का मुस्लिम लीग ने प्रतिक्रियात्मक जवाब दिया । देश भर में दंगा भड़क उठा जिसका प्रभाव छपरा, बांका, जहानाबाद, मुंगेर जिलों में था । ६ नवम्बर, १९४६ को गाँधी जी ने एक पत्र जारी कर काफी दुःख प्रकट किया । १९ दिसम्बर, १९४६ को सच्चिदानन्द सिंह की अध्यक्षता में भारतीय संविधान सभा का अधिवेशन शुरू हुआ । २० फरवरी, १९४७ में घोषणा की कि ब्रिटिश जून, १९४८ तक भारत छोड़ देगा ।
१४ मार्च, १९४७ को लार्ड माउण्टबेटन भारत के वायसराय बनाये गये । जुलाई, १९४७ को इण्डियन इंडिपेंडेण्ट बिल संसद में प्रस्तुत किया । इस विधान के अनुसार १५ अगस्त, १९४७ से भारत में दि स्वतन्त्र औपनिवेशिक राज्य स्थापित किये जायेंगे । बिहार के प्रथम गवर्नर जयरामदास दौलतराम और मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह बने तथा अनुग्रह नारायण सिंह बिहार के पहले उप मुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री बने।
  • २६ जनवरी, १९५० को भारतीय संविधान लागू होने के साथ बिहार भारतीय संघ व्यवस्था के अनुरूप एक राज्य में परिवर्तित हो गया ।
  • १९४७ ई. के बाद भारत में राज्य पुनर्गठन में बिहार को क श्रेणी का राज्य घोषित किया लेकिन १९५६ ई. में राज्य पुनर्गठन अधिनियम के अन्तर्गत इसे पुनः राज्य के वर्ग । में रखा गया ।
  • १५ नवम्बर, २००१ को बिहार को विभाजित कर झारखण्ड और बिहार कर दिया गया ।





बक्सर जेल में बना फंदा पर झुला अफजल


 बक्सर जेल में बना फंदा पर झुला अफजल


आखिरकर बिहार के बक्सर सेंट्रल जेल में बना फांसी का फंदा पर अफजल गुरू को लटका दिया गया ... सुत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक आज से पांच साल पहले अफजल गुरू के लिये बक्सर के सेट्रल जेल में मनीला रस्सी से फांसी का फंदा उसके बजन और लम्बाई को देखते हुऐ वहां के कैदियों के द्वारा बनाया गया था .. दरअसल उस वक्त तिहार जेल के डिप्टी सुप्रिटेंडट फंदें का रिक्यूजिशन लेकर बिहार आये थे जिसके बाद बक्सर जेल में इसका निर्माण किया गया था और फिर उसे लेकर वो तिहार के लिये रवाना हो गये थे .. आधिकारियो से मिली जानारी के मुताबिक देश में मात्र एक जगह मौत का फंदा तैयार होता है। वो जगह कहीं और नहीं बिहार का केन्द्रीय कारा बक्सर है। जी हां यह सच है। इस जेल में बन्द कैदी ही अपने साथियों की मौत का फंदा तैयार करते है। इस विशेष रस्सी का नाम मनीला रस्सी है। 
 
वर्ष 1844 . में अंग्रेज शासकों द्वारा केन्द्रीय कारा बक्सर में मौत का फंदा तैयार करने की फैक्ट्री लगाई गई थी। बक्सर केन्द्रीय कारा में तैयार मौत के फंदे से पहली बार सन् 1884 . में एक भारतीय नागरिक को फांसी पर लटकाया गया था। वर्तमान समय में देश में जब-जब मौत का फरमान जारी होता है तब-तब केन्द्रीय कारा बक्सर के कैदी ही मौत का फंदा तैयार करते है।
 
अबतक तैयार रस्सी का इतिहास
जेल सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार जेल स्टाफ आनंद शर्मा व शशि कुमार के नेतृत्व में छ: सजायाफ्ता कैदी फांसी देने वाली विशेष प्रकार की मनीला रस्सी का निर्माण करते हैं। राज्य सरकारों की विशेष मांग पर अबतक सन् 1995 . में केन्द्रीय कारा भागलपुर, 1981 में महाराष्ट्र, 1990 में पश्चिम बंगाल, 2003 में आंध्रप्रदेश और 2004 में पश्चिम बंगाल को आपूर्ति किया गया।

 
मौत के फंदे का दाम मात्र 182 रूपये

168
किलोग्राम वजन उठाने की क्षमता वाली विशेष प्रकार की रस्सी की कीमत मात्र 182 रूपये है। इस कीमत में बढ़ोतरी अजादी के बाद से नहीं की गई है। अंग्रेजों के जमाने में रूई सुता से इस रस्सी का निर्माण किया जाता था। मनीला रस्सी का निर्माण आज भी पंजाब में उत्पादित होने वाली जे-34 गुणवक्ता वाली रूई के सुतों से किया जाता है जो विशेष आर्दता में तैयार 50 धागों से बना होता है। जिसका वजन 3 किलो 950 ग्राम होने के साथ 60 फीट लम्बा होता है।
 
बक्सर के अलावा मनीला रस्सी तैयार करने पर देश में पूर्ण प्रतिबंध
 
उधोग मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि केन्द्रीय कारा को छोड़ कर भारतीय फैक्ट्री लॉ में इस क्वालिटी की रस्सी के निर्माण पर पूरे देश में पूर्ण प्रतिबंध है। वहीं वरीय प्रशासनिक अधिकारी से प्राप्त जानकारी के अनुसार केवल सरकारी आदेश को छोड़ कर इस विशेष प्रकार के रस्सी के उपयोग पर पूरे देश में पूर्ण प्रतिबंध लगाया गया है।

मनीला नाम कैसे पड़ा...

जेल के अधिकारी के मुताबिक ब्रिटिश हुकूमत में पहले फिलीपीन की राजधानी मनीला में फांसी के लिए रस्सी तैयार होती थी। बाद में बक्सर जेल में भी वैसी ही रस्सी का निर्माण होने लगा। अंग्रेजों ने ही इसे मनीला रस्सी नाम दिया।

Tuesday, February 12, 2013

कुछ न कहने वाली मां....(कविता)

मां
हर पल, दर्द को सहने वाली
जुबां से उफ! न कहने वाली
हर मुश्किल से लड़ने वाली मां!
तू और तेरी ममता बड़ी निराली है.
तन से अपने साट-साटकर
मुझको जीवन देती हो
लाख मारी पैरों को तन पर
उसको हंस-हंस सहती हो
सोचता हूं, कितनी धीरज वाली है मां!
बिस्तर हो गए गिले तो
खुद उस पर सो,
हमे उससे बचाती हो
लगे किसी की नजर न हमको
सीने से लगा हौसला देने वाली है मां!
भूख लगे तो दूध पिलाया
चोट लगी ममता के मरहम लगाती हो
खुद तो भूखे सो जाती
चेहरे पर शिकन नहीं दिखाती हो मां
तू कितनी प्यारी हो!
जिन्दगी की खुशीयां कुर्बान करने वाली है मां!
पौधों सा सींच-सींचकरएक दिन बड़ा बनाती हो
ये कैसी दुनियां की रीत
उम्मीदों की दुनियां में खुद बुढ़ी हो जाती हो
पर!
तेरी ममता हर पल जवां रहने वाली है मां!
दुनियां के कोने-कोने में
 ढूंढ़ा मां की ममता हीं सबसे प्यारी है
ढंूढ़ रहा था मंदिर-मस्जिद में तुझको
घर में बैठी अमृत की प्याली है मां!
हर मुश्किल को सहने वालीजीवन के गुर सीखाती हो
हो गया जब बड़ा लाड्ला
प्यारी सी दुल्हन घर में लाती हो
माथे को चुमकर,उसे भी गले लगाती हो
थक गई तू जो हर मुश्किल को सहने वाली है मां!
खुशीयों का एक बाग सजाकर
फूल रंग-बिरंगे खिलाया था
कैसा अब ये दिन आया
सब आंखों से ओझल हो जाते हैं
कितने दिन की मेहमां,
गम को अंदर पीने वाली है मां!
एक दिन ऐसा भी आया
बुढ़ी हो गई मां उसे भी
अब तेरी जरुरत है
नहीं चाहिए रुपया-पैसा
तेरे ममता की उन्हें जरुरत है
धरती सा धीरज,
कुछ न कहने वाली हैमां !-----------------मुरली मनोहर श्रीवास्तव9430623520/9234929710

कोसी की टीस (कविता)

कोसी की टीस.............................

दूर-दूर तक..
बंजर जमीन है,
रहने को खुली आसमां बेघर लोग हैं....
पूरी जिन्दगी किसी तरह कट गई
लेकिन दर-दर की ठोकर खाता अभिशप्त बुढ़ापा है...
खिलने से पहले
मुरझाता और अपना भटकता बचपन है...
ये वही बाढ़ पीड़ित हैं
जिनके दिलों में आज भी
कोसी के तबाही की टीस है...
न घर-बार ना कोई ठिकाना है
विडंबना के इस मौजूदा चेहरे का,
गरीबी पीछा छोड़ने का तैयार नहीं,
बावजुद इसके अपनी झोपड़पटटी में रहकर
हंसी-खुशी
किसी तरह जीवन के दिन काट रहे हैं.....
इनकी खुशीयों पर कोसी ने ग्रहण लगा दिया
लाखों हो गए बेघर
तो अभागों के लिए सड़क का किनारा,
नहर कि पटरियां हीं आज ठिकाना हो गया है...
दम तोड़ती उम्मीदें नजर आ रही हैं,
कभी लहलहाते खेतों को भी कोसी बहा ले गयी
अब सोना उगलने वाले खेत भी विरान हैं...
कल क्या होगा ?
किसे मालूम,
सब कुछ गंवा चुके
इन बेसहारों की मरघट की तरह जीना जिन्दगी बन गई है....
कोसी प्रलय के महिनों बीत गए
लोगों को मिली विरासत में भुखमरी,
अशिक्षा,कुपोषणऔर क्या कहुं,
कुशहा तटबंध टूटने से
यहां तबाही के निशांआज भी मौजूद हैं....
तबाही का---
आलम क्या था ?
क्या खंडहर !सब बयां कर रहा है.....
चारो ओर पानी हीं पानी है,
यही इन बेचारों की कहानी है,
बोलेंगे ये क्या ?
सब कुछ---इनकी बंद जुबानी है...........

मासूम मुस्कान है (GHAZAL)

गजलजाने कहां तक पहुंचे,उजाले की चाह में
दिन में भी घुप्प अंधेरा है छाने लगा.

तिनका-तिनका चुगकर बसाया आसियां
अब तो उजाले से भी डर लगने लगा.

सबके चेहरे पर, मासूम मुस्कान है
कौन कातिल,कौन है सजा पाने लगा.

चांद पर जा पहुंचने की चाहत है मगर
उड़ान भरने से पहले,कुहरा है छाने लगा.

रोक लो उस आंधी को, जो दहला रही है
किसकी कारगुजारी,किसका दीप बुझने लगा.
------मुरली मनोहर श्रीवास्तव
9430623520, 9304554492

मुझे यूं भूला ना पाओगे


मुझे यूं भूला ना पाओगे
अब बात हिन्दी सिनेमा जगत के सबसे सफल गायक मोण्रफी की। मोहम्मद रफी३ण्एक ऐसा नाम है जिसे शायद ही कोई नहीं जानता। रफ़ी साहब ने अपनी जादुई आवाज के जरिए इंडियन फिल्म इंडस्ट्री को कई दशकों तक हजारों बेहतरीन नगमें दिए। आज इस महान गायक की 25 वीं पुण्यतिथि पर उन्हें याद किया जा रहा है।
तुम मुझे यूं भूला ना पाओगे रफ़ी साहब के ही गाए इस गीत से बेहतर श्रद्धांजली उन्हें भला और क्या होगी। अपने करियर में रफ़ी साहब ने करीब 26 हजार गाने गाए। जिनमें हर रंगए मिजाज और मूड को उन्होनें इस बखूबी से अपनी आवाज में उतारा कि हर कोइ उनकी मखमली आवाज़ का कायल हो गया। चौदवी का चांदण्ण्ण्बाबुल की दुआएं लेती जा जैसे गानों को परदे पर जीवंत करने वाले मोण्रफी एक अच्छे सिंगर होने के साथ एक अच्छे इंसान भी थे।
31 जुलाई 1980 को सुरों के जादूगर कहे जाने वाले इस फंकार की आवाज़ सदा के लिए खामोश हो गई। लेकिन उनके गीत हमेशा के लिए अमर हो गए। 60.70 के दशक में उन्होनें दिलीप कुमारए देवानंदए शम्मी कपूर जैसे कई स्टारों को अपनी आवाज़ के ज़रिए अलग पहचान दिलवाइ। फिल्म इंडस्ट्री में उन्हें उनके बेहतरीन सिगिंग के लिए पद्मश्री और फिल्मफेयर जैसे कई अवार्डस से भी नवाजा़ गया।
आज भले ही रफी साहब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी आवाज़ का जादु संगीत प्रेमियों के दिलों में कुछ ऐसे बसा है जिसकी गूंज सदियों तक जिंदा रहेगी।

Bismillah Khan Unites Rival Politicians; at least Temporarily

Bismillah Khan Unites Rival Politicians; at least Temporarily
Patna: November 15, 2009

In a rare picture of political togetherness, Chief Minister Nitish Kumar, Independent MP Jagadanand, and noted filmmaker Prakash Jha shared the same platform on Sunday at the release of a book on world-acclaimed Shehnai maestro Bismillah Khan.Highlighting the life story of Khan and his music career that exceeded six decades, Kumar said that the state would honor the Shehnai player at a function next year to mark his birth anniversary.The Chief Minister also pledged to get a park constructed in Patna to honor Khan who, he said, brought joy to millions of people across the globe.The book written by Murli Manohar Srivastava celebrates the life of Khan, his humble beginning, and his contributions to the world of music in a very lucid manner that is certain to interest people of all ages, Kumar said.The event was particularly interesting in the light of reported personal grudges against the three men sharing the same platform.As reported, Jagadanand, the former Rashtriya Janata Dal (RJD) leader, and Nitish Kumar have not spoken to each other in years. Also, Jha, known for his several socially hard-hitting films like Gangajal and Apharan, after sharing friendly relationship with Kumar until he was denied a Janata Dal (U) ticket for the Lok Sabha polls earlier this year, has hardly kept in touch with the Chief Minister after making an unsuccessful bid from Bettiah on a Lok Janshakti Party (LJP) ticket.Kumar, in an attempt to mend ways with both leaders, suggested keeping line of communication open with each other despite political and ideological differences among them. He later invited both to have snacks with him.

नषे के खिलाफ कारवां

नषे के खिलाफ कारवां [ 22 राज्यों से अमन का संदेष लेकर गुजर चुके अमनदीप ]लोगों में जागरूकता लाने के लिए हौसले बुलंद और मजबूत इरादे की जरूरत होती है जाो सारी मुष्किलों को आसान कर देती है । इसका जीता जागता उदाहरण है बंगलुरू का अमनदीप जो नषे के खिलाफ जागरूकता का कारवां लेकर पटना पहुंच गया है ।
आज की युवा पीढ़ी नषे के लत के कारण अपना जीवन बर्बाद कर रही है । गुटखा, सिगरेट, खैनी और पान के सेवन से लोगों में कैंसर और अन्य घातक बीमारियां तेजी से बढ़ रही है। इन चीजों का सेवन नहीे करने से ही इन बीमारियों पर काबू पाया जा सकता है । नषे के खिलाफ इसी जागरूकता को फैलाने के उद्वेष्य से साइकिल पर सवार अमनदीप ने यह यात्रा षरू की है। अब तक 22 राज्यों से अमन का संदेष लेकर गुजर चुके अमनदीप अब पटना पहुंच चुके है ।
पेषे से षिक्षक अमनदीप बंगलुरू के गरुनानक मिषन बालक उच्च विद्यालय में गुरुमुखी के षिक्षक है । षिक्षा बांटना ही इनके जीवन का मकसद रहा है। इसी मकसद को पूरा करने के लिए इन्होंने यह बीरा उठाया और देषभर में लोगों को नषे के खिलाफ जागरूक करने की मुहिम झेड़ दी।
दृढ़ इच्छाषक्ति से मनुष्य कुछ श्ी कर सकता है। अब देखना यह है कि जागरूकता की यह मुहिम अपने उद्वेष्य में कितना सफल हो पाती है।

नव वर्ष की हार्दिक शुभकामना

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नव वर्ष की हार्दिक शुभकामना
कभी-कभी
विश्वास नहीं होता है,
कि कल
ऐसे भी गुजर जाता है.
बीते सपनों की तरह
यादों का सफर
कहीं खुशी-कहीं गम
छोड़ जाता है.
वक्त ही तो है
किसी को शोहरत
तो कितनों का सफर
मुफलिसी में गुजर जाता है.
दिल में जज्बा
आंखों में,
साकार करने की हिम्मत हो
वैसे ही
लोगों को मोकाम मिल पाता है.
आपके सपने हों साकार
आपकी खुशियां हो हजार,
इन्हीं आशाओं के साथ
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामना
आपके जीवन में
नया सबेरा दे जाता है....
HAPPY NEW YEAR-2013
--------मुरली मनोहर श्रीवास्तव,

भटकती पत्रकारिता
ईश्वर ने गांव को बनाया , मनुष्य ने शहर बनाया । गांव मे खेत है, खलिहान है, नदी है, तालाब है, बाग- बगीचा है, पक्षियों का कलरव है, रंभाती गाये है, वहां प्रकृति बसती है, भारत माता गांव मे ही रहती है । बापू जी ने भी कहा था । भारत की आस्था गांव में रहती है । सुमित्रा नंदन पंत ने कहा - मरकत डिब्बे सा खुला गा्रम। शहर बढते गये गाॅंव लुटता चला गया । गाॅवों मे भी अब शहरो की नकल होने लगी है । शहर गांव का शोषण करने लगा ।
गाॅवो के देश भारत में , जहा लगभग 80 प्रतिशत अबादी गा्रमीण इलाकों में रहती है, बापू ने भी कहा था की देश का विकास तभी संभव है जब गाॅव का विकास संभव । इसी को ध्यान में रखते ंहुए पंचायती राज का गंठन किया । इतना ही गाॅव का विकास उतना नही हो सका जितना होना चाहिए । इसका दोषी कौन है। न्यायपालिका ,कार्यपालिका ,विधायिका , या अपने को पढा लिखा और विद्वान मानने वाली मिडिया। प्रजातात्रिक देश के इन चार स्तभों में आखिर दोषी कौन ? टी वी पर आकर चिल्लाने वाले टी वी पत्रकार ब्र्रेकिग दिखाने की होड में अपने कर्तव्य को भूलने वाली इलेक्टोनिक मिडिया या मुखपृष्ठ पर अपने मिशन को भूल कर केवल अपराध , डकैती और बलात्कार को छापने वाली पिं्रट मिडिया । लोकतंत्र के चार स्तभों में चैथा और आखिरी स्तंभ मिडिया का काम है बाकी तीन स्तभों में आये भटकाव को रोकना उनका मार्गदर्शन कराना । लेकिन जब चैथा स्तभ ही कमजोर और व्यापारी बन जाऐ तो बाकी तीन बेलागाम हो जाते है । अगर गांव पिछडा हुआ है तो इसका सबसे ज्यादा दोषी आज का मिडिया है । जनता की आवाज मिडिया में भटकाव आ गया है वह अपना कतव्य भूल कर टीआरपी और सर्कुलंेशन बढाने मंें लगे हुए है किन खबरों को समाचार पत्र या खबरिया चैनल मंें प्राथिमकता देनी चाहिए यह बात खत्म हो चूकी है । मिडिया पर बाजार हावी हो चुका है चाहे वह क्षेत्रीय या राष्टीय स्तर के समाचार चैनल या समाचार पत्र सबपर बाजार वाद दिखाई दे रहा है । पहले पत्रकारिता मिशन थी, अब प्रोफेशन हो गई । इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में क्राति आने के बाद प्रसन्नता होती है । जब छोटी - छोटी खबरें भी इलेक्ट्राॅनिक चैनल्स पर आती है । लेकिन जिस प्रकार , विलेज जर्नलिज्म को उभर कर आना चाहिये ,नही आया है राजधानी और बडे शहरों की पत्रकारिता का स्तर बडंे - बडें राजनीतिज्ञांे और सता के गलियारंे में बैठे नौकरशाहों के संबधो , फिल्मी कलाकारो नीजी जीवन के आधार पर मापा जाता है । गाॅव की समस्याओं की समस्याआंे को सुलझाने में समाचार पत्र कोई दिलचस्पी नही दिखा रहा है गा्रमीण क्षेत्रों की खबरें समाचार माध्यमों में तभी स्थान पाती है जब किसी बडी प्राकृतिक आपदा या व्यापक हिंसा के कारण बहुत लोगों की जाने चली जाती है । ऐसे में कुछ दिनों के लिए राष्टीय कहे जाने वाले समाचार पत्रांें और मीडिया जगत की मानेा नीदं खुलती है और उन्हे गा्रमीण जनता की सुध आती जान पडती है।खासकर बडंें राजनेताओं के दौरे की कवरेज के दौरान ही गा्रमीण क्षेत्रों की खबरों को प्रमुखता से स्थान मिल पाता है । फिर मामला पहले की तरह ठंडा पड जाता है और किसी को यह सुनिश्चित करने की जरूरत नही होती कि गा्रमीण जनता की समस्याओं को स्थायी रूप से दूर करने और उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए किए गए वायदांें को कब कैसे और कौन पूरा करेगा । और गाॅधी के सपनो गाॅवो का भारत कब विकास करेगा । और यह काम कौन पूरा करेगा । यह एक यक्ष प्रशन है । ।

इंसान की जिंदगी....

गोरख पांडेय जी की लेखनी को आवाज हमने देने की कोशिश की है....मुरली मनोहर श्रीवास्तव

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HIMMAT SE KAM LOGE TO ZMANA V SATH DEGA...HO GAYE KAMYAB TO BCHACHA-BCHCHA V NAM LEGA.....MAI EK BAHTE HWA KA JHOKA HU JO BITE PAL YAD DILAUNGA...HMESHA SE CHAHT HAI KI KUCHH NYA KAR GUZRNE KI...MAI DUNIA KI BHID ME KHONA NHI CHAHTA....