Sunday, March 24, 2013

होली से पहले दिल्ली को दहलाने की साजिश नाकाम


दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने बड़ी सफलता हासिल करते हुए होली से पहले एक बड़े आतंकी हमले की साजिश को नाकाम कर दिया है। स्पेशल सेल ने हिजबुल आतंकी की निशानदेही पर प्रतिष्ठित जामा मस्जिद के पास हाजी अराफात गेस्ट हाउस में छापा मारकर एके 47 राइफल समेत भारी मात्रा में विस्फोटक सामान बरामद किया है। छापेमारी में दो कश्मीरी लोग पकड़े गए हैं और उनसे गहन पूछताछ की जा रही है।जामा मस्जिद इलाके में बीती रात चार घंटे तक चली छापेमारी में हथियार समेत विस्फोटक बरामद हुआ है। गेस्ट हाउस को सील कर दिया गया है। दो दिन पूर्व ही गोरखपुर से हिजबुल आतंकी लियाकत अली शाह को गिरफ्तार किया था। उसी की निशानदेही पर दिल्ली में भारी मात्रा में विस्फोटक बरामद हुआ है।लियाकत अली शाह की ट्रेनिंग पाकिस्तान में हुई थी। आतंकियों का लक्ष्य होली से पहले दिल्ली के किसी भीड़ भरे इलाके में विस्फोट कराने का था।सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, एक हिजबुल आतंकी के निशानदेही पर इस छापेमारी को अंजाम दिया गया। जामा मस्जिद इलाके में स्थित गेस्‍ट हाऊस के बारे में आतंकी लियाकत अली शाह ने पुलिस को जानकारी दी थी। आतंकी लियाकत अली शाह को दो दिन पहले गोरखपुर से गिरफ्तार किया गया था।
सूत्रों के अनुसार, गेस्‍ट हाउस से पकड़े गए दोनों संदिग्‍ध आतंकी कश्‍मीरी हैं। ये दोनों पीओके से नेपाल के रास्‍ते दिल्‍ली पहुंचे हैं। बताया जा रहा है कि हमले को लेकर दिल्‍ली पुलिस के पास पहले से अलर्ट था। श्रीनगर में बीते दिनों सीआरपीएफ कैंप पर हुए हमले की तर्ज पर यहां हमले की साजिश रची गई थी। स्‍पेशल सेल अभी मामले की आगे की जांच में जुटी है।हिजबुल मुजाहिदीन के संदिग्ध आतंकवादी को गिरफ्तार करने के साथ ही पुलिस ने दावा किया है कि उसने होली से पहले राजधानी में आतंक फैलाने की साजिश का पर्दाफाश किया है।पुलिस सूत्रों ने बताया कि हिजबुल के संदिग्ध सदस्य लियाकत अली को उस समय गिरफ्तार किया गया, जब वह गोरखपुर से दिल्ली आने के लिए एक ट्रेन में सवार था। अली को गुरुवार को ही अदालत के सामने पेश किया गया, जिसने उसे 15 दिन की पुलिस हिरासत में भेज दिया।सूत्रों ने कहा कि उसने बताया है कि मध्य दिल्ली की एक कालोनी में स्थित एक गेस्ट हाउस में उसके लिए हथियार रखे गए हैं। उसकी सूचना पर उस स्थान पर धावा बोला गया और कुछ हथियार और गोली बारूद बरामद किया गया है।

अक्टूबर में फिर होगा रेल किराये-भाड़े में फेरबदल
रेल मंत्रालय ईधन के दामों में फेरबदल के हिसाब से अक्टूबर में किराये-भाड़े की समीक्षा करेगा। अगर ईधन की कीमतों में वृद्धि हुई तो किराया-भाड़ा बढ़ सकता है। ईधन के दाम घटे तो किराये-भाड़े में कटौती हो सकती है। रेलवे बोर्ड के चेयरमैन वीके मित्तल ने राष्ट्रीय संपादक सम्मेलन के दौरान इसके संकेत दिए।मित्तल ने कहा कि वर्ष 2013-14 के रेल बजट में किरायों को ईधन समायोजन मद [फ्यूल एडजस्टमेंट कंपोनेंट-एफएसी] के हिसाब से बदलते रहने की बात कही गई है। इसके मुताबिक 'अगले छह महीने में हम एफएसी का आकलन करेंगे और उसी के हिसाब से किरायों और मालभाड़ों में बदलाव की रूपरेखा तय करेंगे।' एफएसी की समीक्षा के बाद ही किराये-मालभाड़े में वृद्धि या कटौती पर कोई निर्णय लिया जाएगा। तब तक रेलवे टैरिफ अथॉरिटी का गठन भी हो जाने की संभावना है। इस अथॉरिटी को लेकर विभिन्न मंत्रालयों के बीच चर्चा हो रही है। इसके पूरा होने के बाद अथॉरिटी के गठन के लिए कैबिनेट नोट तैयार होगा। इसे बाद में मंजूरी के लिए कैबिनेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।रेलवे में पहली बार किराये-भाड़े तय करने के लिए रेलवे टैरिफ अथॉरिटी का गठन हो रहा है। इसका काम रेलवे की लागतों के हिसाब से यात्रियों और माल वाहकों के लिए उपयुक्त दरों की सिफारिश करना होगा। इसकी सिफारिशों पर पहले सरकार कैबिनेट के जरिये फैसला करेगी। उसके बाद अनुमोदन के लिए उसे संसद में पेश करेगी। संसद की हरी झंडी के बाद ही अथॉरिटी के प्रस्तावों को लागू किया जा सकेगा। इस तरह किराया-भाड़ा बढ़ाना अब की अपेक्षा मुश्किल होगा। अभी रेल मंत्रालय को बगैर संसद के अनुमोदन के केवल कैबिनेट की मंजूरी के जरिये किराये-भाड़े बढ़ाने का अधिकार है। इस साल जनवरी में रेल बजट से पहले किराये बढ़ाकर वह ऐसा कर भी चुका है।मित्तल ने कहा, 'चूंकि हमने 22 जनवरी को ही किराये बढ़ाए थे, लिहाजा भाड़ों पर तो एफएसी को एक अप्रैल, 2013 से लागू करने का फैसला किया गया है। वहीं, किरायों पर इसे फिलहाल लागू नहीं करने का निर्णय किया गया। इससे होने वाले 800 करोड़ के नुकसान को हम फिलहाल खुद वहन कर रहे हैं। लेकिन अक्टूबर में दोनों पर विचार होगा।'रेलवे की कुल लागत में ईधन पर होने वाला खर्च [एफएसी] 16-17 फीसद है। पिछले वर्ष एक अप्रैल से इस साल जनवरी तक डीजल की कीमत में 39 और बिजली शुल्क दरों में करीब आठ फीसद इजाफा हुआ है।

नीतीश और अधिकार रैली


विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर आज दिल्ली में बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने रैली की .... रामलीला मैदान में हुई रैली में सबसे बड़ा सवाल ये उभरा कि क्या नीतीश बिहार के बहाने दिल्ली में पीएम की उम्मीदवारी की दस्तक दे रहे हैं.... इस रैली से कई ऐसे संकेत निकल रहे जो देश में भविष्य की राजनीति पर असर डाल सकते हैं. दिल्ली का रामलीला मैदान वैसे तो कई आंदोलनों और रैलियों का गवाह बना है लेकिन इस मैदान पर पहली बार है जब किसी राज्य की सरकार के मुखिया ने राज्य के विकास के नाम पर रैली की.... . खास ये भी है कि इस रैली में उसने एनडीए में अपने सहयोगी और बिहार की सत्ता में साझेदारी बीजेपी को भी शामिल नहीं किया है. दिल्ली में नीतीश की रैली, सिर्फ और सिर्फ जेडीयू की रही और जिसमें सबसे बड़ा चेहरा रहे नीतीश कुमार..... . वैसे 6 फरवरी को दिल्ली के SRCC कॉलेज से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली की दौड़ शुरू की थी, मुद्दा बनाया था विकास को. अब SRCC कॉलेज से करीब आठ किलोमीटर दूर रामलीला मैदान में नीतीश की रैली इस बात का ऐलान है कि नीतीश भी दिल्ली की इस दौड़ में शामिल हैं.

इस रैली से नीतीश का दोहरा फायदा उठाते की कोशिश में दिखे........ एक तो वो बिहार में जातिगत फैक्टर से ऊपर उठकर वोटरों को एकजुट करते दिखे........ और दूसरा ये कि इस रैली से बीजेपी को दूर रखकर वो भविष्य का रास्ता भी खुला रखने के संकेत दे गए... जो बीजेपी के लिए एक चेतावनी से कम नहीं है. . नीतीश ये कोशिश करते दिखे कि विकास का पत्ता खेलते हुए वो नए ऐसे राजनैतिक समीकरण की तरफ बढ़े सकें जहां उनका समर्थन करने वालों की एक बड़ी तादाद हो जिसका फायदा वो आने वाले वक्त में उठा सकें.
. नरेंद्र मोदी की दिल्ली में पीएम बनने की संभावना को लेकर नीतीश और जेडीयू की नराजगी किसी से छिपी नहीं है. 17 मार्च को मुंबई में नरेंद्र मोदी भी रैली करना चाहते थे लेकिन खबरों के मुताबिक नीतीश के विरोध की वजह से मोदी की ये रैली रद्द कर दी गई. कहा गया कि बीजेपी फिलहाल नीतीश को नाराज नहीं करना चाहती.

बिहार में कुल 40 लोकसभा सीट हैं जिसमें 2009 चुनाव में जेडीयू और बीजेपी ने मिलकर 32 सीट जीती थीं. इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी और जेडीयू ने मिलकर 243 सीटों में से 206 विधानसभा सीट जीती थीं. ऐसे में बीजेपी ये बिल्कुल नहीं चाहेगी कि बिहार का ये विनिंग कॉम्बीनेश टूटे या फिर नीतीश पाला बदलकर यूपीए की तरफ चले जाएं. इस रैली से नीतीश अपनी दिक्कतें से भी ध्यान हटाने की कोशिश में भी दिखे... . कॉन्ट्रैक्ट शिक्षकों पर लाठीचार्ज मामले में नीतीश को विपक्ष पूरी तरह से घेर रहा है. बिहार में कानून व्यवस्था को भी लगातार मुद्दा बनाए जाने की कोशिशें की जा रही हैं. वहीं नीतीश के विरोध में भी लालू यादव, पासवान और उपेंद्र कुशवाहा ने भी नए समीकरणों की तलाश शुरू कर दी है. नीतीश ने रैली के जरिए पूरी कोशिश की कि रामलीला मैदान पर विराट रूप दिखा कर अपने कार्यकर्ताओँ और वोटरों में नई उम्मीद जगा जाएं. नीतीश 

अफीम की खेती



दूर दूर तक फैली हरियाली, किसी भी इंसान के चेहरे पर खुशी ला दे....लेकिन ये हरियाली कईयों की जान लेने के लिए काफी है,,,,दरअसल ये हरियाली है नशे की...यानी अफिम की...बिहार के औरंगाबाद, गया और भगलपुर के कई जिलों में बेरोजगारी और गरीबी से परेशान किसानों ने अफीम की खेती का जरिया चुना है जिससे इन्हें कम रकम में अच्छा मुनाफा होता है....लेकिन ये खेती किसान खुशी से नहीं करते बल्कि जबरन या प्रलोभन देकर कराई जाती है....मौत के इस फसल को नष्ट करने के लिए अभियान भी छिडा़....इस दौरान औरंगाबाद पुलिस ने दस एकड़ में फैले अफीम की खेती को नष्ट भी किया...


पुलिस अफीम की होर ही अवैध खेती पर लगातार छापेमारी कर रही है...लेकिन फिर भी अफीम की अवैध खेती का दायारा बढ़ता जा रहा है...मुद्दा इतना गंभीर हो गया है कि ये मुद्दा बिहार विधानसभा में भी गूंजा...सरकार ने माना कि कई जिलों में चोरी छुपे अफीम की खेती की जा रही है और इसके पीछे दूसरे राज्य के संगठित अपराधी भी काम कर रहे हैं...


किसान मजबूर है, तंगहाली में जिंदगी गुजार रहे है......ऐसे में गरीबी और प्रलोभन उन्हें नशे की खेती के लिए मजबूर कर रही है...मामला गंभीर हैलेकिन इसके साथ ही कई सवाल भी खड़े है...आखिर क्यों अपराधियों की दबिश में किसान आ जा रहे हैं...क्यों इन्हें अफीम की खेती के लिए मजबूर कर दिया जा रहा है....सवाल कई है...लेकिन जवाब के नाम पर लगाम लगाने वाले अभियान के भरोसा और उम्मीद का आश्वासन..

पानी या जहर


गढवा जिले के प्रतापपुर गांव में सालों से फ्लोराईड अपना कहर बरपा रहा है...गांव के 90 फीसदी लोग फ्लोराईड की चपेट में है....दूषित पानी की वजह से इस गांव से अर्थियां तो उठती हैं, पर सालों से इस गांव से शहनाई की गूँज सुनाई नहीं पड़ रही है....इसके बावजूद भी इस तऱफ किसी का ध्यान नहीं है.

जिला मुख्यालय से महज 10 कि0 मी0 दूर, प्रकृति की नाइंसाफी झेलता प्रतापपुर गाँव....वो गाँव जहाँ के पानी में घुला है जहर... फ्लोराईड नाम का जहर...इस जहरीले पानी को पीने से कोई कुपोषित हो रहा है, कोई अपाहिज, तो कोई हो जा रहा है वक्त से पहले बूढा...इस गांव में फ्लोराईड का कहर कुछ ऐसे बरपा कि इस गांव से जनाजे तो निकलते हैं पर न तो यहाँ नई- नवेली बहू आती है और ना उठती है किसी बेटी की डोली...गांव में छाए इस मातम से हर कोई मायूस है...

प्रतापपुर के ग्रामीणों को जनता के नुमाइंदे और सफेद लिबास वाले नेता एक अरसे से फ्लोराईड मुक्त जल मुहैया कराने की बात कर रहे हैं, ये बात दिगर है कि उनमे से शायद ही किसी ने एक अदद कोशिश की हो...प्रशासनिक कार्रवाई की बात करें तो 7 साल पहले गांव के चापाकलों में फ्लोराईडरोधी मशीन लगाई गई, लेकिन विभाग उसका रख- रखाव तक नहीं कर पाई...कागजों पर तो जल निर्माण योजनो भी उकेरी गई, पर विभागीय उदासिनता और ठेकेदारों की लापरवाही इस योजना को भी ले डूबी...ऐसे में जिला प्रशासन चापानल का सर्वे कर रही है, प्रशासन की माने तो यहाँ 11 कल फ्लोराईड वाले को चिन्हित किया गया, जबकि सिविल सर्जन ने कम फ्लोराईड वाले चापानल की संख्या चार बताई है....

फिलहाल ये वक्त आँकड़ो की फजीहत में फँसने की नहीं बल्कि जहर घुले पानी को पीने लायक पानी में तब्दील करने की है....प्रतापपुर के ग्रामीणों को अब भी उम्मीद है देर आए जिला प्रशासन के दुरूस्त आने की...

Saturday, March 23, 2013

महज पंद्रह दिनों का रेलवे स्टेशन


                 महज पंद्रह दिनों का रेलवे स्टेशन


                             क्या आपने किसी ऐसे स्टेशन का नाम सुना है या फिर उसे देखा है जो पूरे साल में सिर्फ 15 दिनों के लिए ही काम करता है. लेकिन इस तरह का बिहार में एक स्टेशन है जिसे सुनने के बाद हर कोई जानना चाहेगा. आखिर कौन सा है स्टेशन और कहां है अवस्थित...क्यों 15 दिन काम करता है.
                           तो आईये हम आपको बताते हैं ऐसे स्टेशन के बारे में गया-मुगलसराय खंड पर अनुग्रह नारयण रोड रेलवे स्टेशन से महज 3 किलोमीटर आगे पुनपुन नदी के तट पर अवस्थित है अनुग्रह नारायण रोड घाट रेलवे स्टेशन जहां पितृपक्ष के दौरान इस रास्ते से जाने वाली लगभग सभी महत्वपूर्ण रेल गाडियों को 15 दिनों के लिए यहां ठहराव दिया जाता है. जिससे यहां आने वाले श्राद्ध अर्पण के पूर्व पिंडदानी यहां से उतरकर पुनपुन नदी के किनारे पिंडदान कर पाते हैं. वर्षों पहले रेलवे की तरफ से यहां आनेवाले यात्रियों के लिए तमाम सुविधाएं उपलब्ध रहती थीं, मगर अब इस स्टेशन पर कोई सुविधा नहीं है. यहां का टिकट काउंटर पूरी तरह से बंद होकर खंडहर में तब्दिल हो चुका है. मजबूरन टिकट नहीं मिलने से यात्रियों को काफी परेशान होती है और बिना टिकट यात्रा करनी पड़ती है. रेलवे की इस लचर व्यवस्था से स्थानीय लोगों में भी काफी क्षोभ है. उनका कहना है कि यदि रेलवे की तरफ से यात्रियों के लिए आवश्यक सुविधाएं दे दी जाती तो यहां आने वाले यात्रियों की संख्या में इजाफा होता और आज के हाईटेक जमाने में शायद सुविधाओं से वो भी अपने कीमती समय को बचा पाते. इन सभी रेलवे के अधिकारियों से बात की जाती है तो उनके जवाब यह समझने के लिए काफी था कि 15 दिनी स्टेशन का यह हाल आखिर इतना बदत्तर कैसे हो गया.
                             बहरहाल पितृपक्ष में यह 15 दिन वाला यह स्टेशन आबाद है, यात्री तमाम असुविधाओं के बावजूद पिंडदान करने की गरज में हर साल यहां आते हैं. ऐसे में जरुरत है इसे पूर्व की स्थिति में लाने की ताकि पिंडदानियों को आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध हो सके.  

Wednesday, March 20, 2013

शहनाई और बिस्मिल्लाह एक सिक्के के दो पहलू


शहनाई और बिस्मिल्लाह एक सिक्के के दो पहलू

                                                                                                               -मुरली मनोहर श्रीवास्तव
दुनिया समझ रही है जुदा मुझसे हो गया,नज़रों से दूर जाके भी दिल से न जा सका....
ये वाक्या पूरी तरह से सटिक बैठ रहा है शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के साथ. जिन्होंने अपनी मेहनत और रियाज के बूते लिख डाली एक ऐसी इबारत जो भुलाए नहीं भूलती. गांव की पगडंडियों पर बजने वाली शहनाई अपने प्रारंभिक दौर से जब आगे बढ़ी तो राजघराने की मल्लिका बन बैठी, इस सुषिर वाद्य को बिस्मिल्लाह खां ने अपनी मेहनत और रियाज के बूते शास्त्रीय धुन के साथ जोड़कर संगीत की अगली पंक्ति में खड़ा कर दिया. शहनाई और उस्ताद एक सिक्के के दो पहलू हैं.जिंदगी के साथ कुछ पल ऐसे होते हैं जिसे भूलना मुश्किल होता है. आज उस्ताद हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी मेहनत और लगन की चर्चाएं संगीत की दुनिया में कोई किए वगैर नहीं थकता.
भारत रत्न शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खां किसी परिचय के मोहताज नहीं. विश्व के कोने-कोने में अपने शहनाई से सबको मुरीद बनाने वाले उस्ताद आज अपने पैतृक राज्य में हीं उपेक्षित हैं. बिहार के बक्सर जिले के डुमरांव में जनमे कमरुद्दीन हीं आगे चलकर शहनाई वादक बिस्मिल्लाह खां हुए. भोजपुरी और मिर्जापुरी कजरी पर धुन छेड़ने वाले उस्ताद ने शहनाई जैसे लोक वाद्य को शास्त्रीय वाद्य की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया.
(संयुक्त परिवार की मिसाल थे उस्ताद,एक छत के नीचे रहते थे सौ लोग)
संगीत एक परंपरा है, संगीत एक श्रद्घा है, संगीत एक समर्पण है, संगीत ही एक ऐसा माध्यम है जो हर एक दूसरे को जोड़े रखती है. कई कलाकार आए और अपनी स्वर लहरियां बिखेर कर दुनियां से रुख्सत हो गए.उनके द्वारा गाए-बजाए गए वाद्य उनकी यादें आज भी ताजा कर देती है, उन्हीं में से एक हैं शहनाई नवाज उस्ताद बिस्मिल्लाह खां. कभी छोटी बिलाधरी, बड़ी बिलाधरी से गुलजार रहने वाली बस्तियों में वक्त गुजारने वाले उस्ताद उन लोगों के इंतकाल के बाद कहते थे कि अब इन गलियों में आने को जी नहीं चाहता, क्यों बस्तियां तो वही है, लेकिन अब वो रौनक नहीं. समय गुजरता गया और आज वाराणसी का हड़हा सराय जहां उस्ताद रहते थे, वो भी उन विरान गलियों में शामिल हो गई है. अब जाने कब इस वाराणसी में वादन का संत आएगा, जो संगीत की दुनिया में एक नई इबारत लिखेगा, इसके बारे में कह पाना मुश्किल है.
दिल बहलाने वाली शहनाई की धुन को पहली बार उस्ताद ने वर्ष 1962 में फिल्म-गुंज उठी शहनाई में दिल का खिलौना हाय टूट गया कोई लूटेरा आके लूट गया...में संगीत देकर अपने वादन से सबके दिलों में रच बस गए.वैसे तो उस्ताद ने हजारों फिल्मों में संगीत दिया है लेकिन अपने जीवन में तीन फिल्मों हिन्दी गुंज उठी शहनाई, भोजपुरी बाजे शहनाई हमार अंगना, और मद्रासी फिल्म सनाधि अपन्ना में बतौर म्यूजिक डायरेक्टर रहे.
21 मार्च 1916 को बिहार के बक्सर जिले के डुमरांव में एक गरीब और जलालत की जिंदगी बसर करने वाले पैगम्बर बख्श के यहां बालक कमरुद्दीन ने जन्म लिया. पैगंबर बख्श डुमरांव राज के मोलाजिम थे. उस्ताद ने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे...गरीबी और जलालत भरी जिंदगी बसर करने वाले परिवार में जन्मे बालक कमरुद्दीन ने महज चौथी की पढ़ाई कर डुमरांव जैसे कसबाई शहर से निकलकर दुनिया के मानचित्र पर अपने संगीत का लोहा मनवाया.जो आज हर किसी की जुबां पर शहनाई की स्वर लहरियां बजते हीं लोग इतना जरुर कहते हैं क्या बजाते हैं उस्ताद, इतनी मिठास की लोग बरबस झुम उठते हैं.
जिस बच्चे को पढ़ा-लिखाकर अब्बा जान बड़ा आदमी बनाना चाहते थे, वहीं बालक कमरुद्दीन को पढ़ने में जी नहीं लगता था, सुबह की बेला में डुमरांव के बांके-बिहारी मंदिर में जाना जहां अब्बा जान शहनाई वादन किया करते थे, शहनाई के इतने शौकिन थे कि इनके लिए अब्बा ने छोटी सी पिपही की तरह बनवा दिया था जिसे लेकर फूंकते रहते थे.इसके अलावे सवा सेर का एक लड्डु के लिए मंदिर और अब्बा के चक्कर काटते रहते थे.क्योकि यहां हर वादक को एक-एक लड्डू डुमरांव राज के तरफ से दी जाती थी.जब इससे फूर्सत मिली तो ढेकवा पोखरा, नहर से मछली मारना, गिल्ली-डंडा खेलना दिन की दिनचर्या में शामिल था.शाम ढलते ही जैसे थक हारकर अपने घर आने के बाद अम्मी के बनाए गोस्त-रोटी पर इस कदर टूट पड़ते लगता कई रोज से भूखे हैं. वक्त ने करवट ली और एक दिन पैगंबर बख्श के दो बेटों में बड़े बेटे शम्सुद्दीन और छोटे बेटे कमरुद्दीन के सर से मां का साया उठ गया. फिर आयी सोतेली मां, मगर कहने को सौतेली, अपने लाडलों से बहुत प्यार करती थी. पर होनी को कुच और ही मंजूर था दस साल की अवस्था में कमरुद्दीन को उनके मामू अली बख्श अपने साथ वारणसी लेकर चले गए.छुट गई जन्मस्थली गाहे-बगाहे आते तो डुमरांव स्टेशन से बैलगाड़ी पर आते समय बैलों के गले में बंधे घूंघरु में बी इन्हें शहनाई का धून नजर आने लगा. मामू के मरने के बाद इन दोनों भाइयो को जिविकोपार्जन के लिए बिस्मिल्लाह एंड पार्टी बनानी पड़ी उसी से कमाई कर अपना पेट भरते थे. आगे चलकर यही बिस्मिल्लाह के नाम से मशहूर हुए कमरुद्दीन.
(भोजपुरी के सबसे बड़े संवाहक, जिन्होंने विश्व में शहनाई पर भोजपुरी गीत बजाकर सबको मुरीद बनाया)
कस्बाई इलाके डुमरांव में जनमें उस्ताद का जीवन बहुत संघर्ष में बीता. हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति के बीच की कड़ी बिस्मिल्लाह खां सच की एक मिसाल हैं. जहां लोग जाति-धर्म के पचड़े में पड़े हैं, वहीं पांच समय के नमाजी उस्ताद मंदिर में सुबह और शाम शहनाई पर भजन की धुन छेड़कर भगवान को भी अपने शहनाई वादन से रिझाते थे. संगीत एक श्रद्धा है, संगीत एक समर्पण है संगीत आपसी मेल का सुगम रास्ता भी है. सांसारिक तनाव से दूर कुछ पल बिताने के लिए संगीत ही वो अकेला साथी है जहां दिल को सकूं आता है. वक्त ने कई बदलाव लाए, कई पहलुओं से वाकिफ करवाया. जिंदगी में कई उतार चढ़ाव देखने वाले उस्ताद 21 अगस्त 2006 को हमेशा के लिए वाराणसी के हेरिटेज अस्पताल में हमेशा-हमेशा के लिए चिरनिद्रा में सो गए, जिन्हें बनारस के कब्रिस्तान फातमान में दफना दिया गया.उनके कब्र से कुछ दूरी पर है जमाने की मशहूर उमरांव जान का मजार.
(डुमरांव जन्मभूमि, बनारस बनी रियाज स्थली तो पूरी दुनिया बनी कर्मस्थली,सौ से भी अधिक देशों में पेश किए कार्यक्रम)
आजादी के बाद पहली बार दिल्ली के दीवान--खास से शहनाई वादन करने वाले उस्ताद ने आजादी के 50 वीं वर्षगांठ पर शहनाई बजाया था.लेकिन जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर दिल्ली के इंडिया गेट पर शहनाई वादन करने की तमन्ना दिल में अधुरी रह गई. जब उस्ताद जिंदा थे तो सभी ने इनके तरफ नजर--इनायत की मगर इनके इंतकाल के बाद कोई इनके घर का पुरसा हाल तक जानने नहीं आता, जिसको लेकर उनके घर वाले खासा नाराज रहते हैं.
बनारस की रुहानी फिजा में मंदिर प्रांगण में घंटों साधना करने वाले उस्ताद एकता और भाईचारे की बहुत बड़ी मिसाल थे. शहनाई को अपनी बेगम मानने वाले उस्ताद ने ऐसी उंचाईयां बख्शी जिन्हें छु पाना किसी के लिए भी बहुत मुश्किल लगता है. उस्ताद बिस्मिल्लाह खा ने निर्विवाद रूप से शहनाई को प्रमुख शास्त्रीय वाद्य यंत्र बनाया और उसे भारतीय संगीत के केंद्र में लाए। शहनाई के पर्याय कहे जाने वाले खा ने दुनिया को अपनी सुर सरगम से मंत्रमुग्ध किया और वह संगीत के जरिए विश्व में अमन और मोहब्बत फैलाने के हामी थे। संगीत के जरिए विश्व में अमन और मोहब्बत फैलाने, उस्ताद को संगीत के प्रति उत्कृष्ट सेवा के लिए उस्ताद को संगीत के प्रति उत्कृष्ट सेवा के लिए वर्ष 2001 में सर्वोच्च सम्मान 'भारत रत्न' से नवाजा गया, बनारस के बालाजी मंदिर में जहां उस्ताद रियाज करते थे वो आज खंडहर में तब्दील हो चुका है. वहीं डुमरांव की मिट्टी में पले बढ़े उस्ताद वर्ष 1979 में डुमरांव अभिनेता बारत भूषण, नाज, मोहन चोटी के साथ पंद्रह दिनों तक रेलवे अधिकारी डॉक्टर शशि भूषण श्रीवास्तव जो बाजे शहनाई हमार अंगना फिल्म से जुड़े थे के घर ठहरे थे लोग.उसके बाद वर्ष 1983 में आखिरी बार आए उसके बाद अस्वस्थ्यता की वजह से नहीं आ सके. डुमरांव से जैसे नाता ही टूट गया उसके बाद मेरे दिल में आया की इनकी स्मृतियों को इकट्ठा किया जाए, जिसे मैंने “शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां” पर पुस्तक लिखकर संजोने की कोशिश की है. अंत में बस इतना ही कहूंगा की कई उम्मीदों को दिल में लिए वो हमसे के लिए रुख्सत तो हो गए, मगर ऐसे प्रणेता युगों-युगों तक जिंदा रहते हैं..

(NOTE - 1. तस्वीर में उस्ताद के साथ लेखक, 2.लेखक के पिता शशि भूषण श्रीवास्तव, बड़े भाई मनोज कुमार श्रीवास्तव,भाई शैलेंद्र राजू के मुंडन के समय  उस्ताद के भाई पंचकौड़िया मियां शहनाई वादन करते हुए.  )
(लेखक- शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां पुस्तक के लेखक हैं)
murli.srivastava5@gmail.com, 09430623520, 09304554492

Thursday, March 14, 2013

अजब प्रेम की गजब कहानी



 एक बार प्रेम की जीत हुई जब पति ने पत्नी को प्रेमी के हवाले कर दिया और विवाहिता ने पति का दामन छोड़ प्रेमी के साथ ससुराल  की दहलीज को पार कर दी / पति रामा मुखिया ने अपनी पत्नी मंजुला को प्रेमी के साथ जाने में कोई भी जना नुकुर नहीं किया और पंचायत के सरपंच को लिखित दिया की उसकी पत्नी मंजुला जिसके साथ जाना चाहे जा सकती है उसे कोई आपत्ति नहीं है / मंजुला एक बच्चे की माँ  भी हैदोनों प्रेमी प्रेमिका ने  गाँव के  मंदिर में सैकड़ों  ग्रामीणों के बिच एक दुसरे को माला पहनाकर फिर से शादी कर ली यह दिलचस्प  मामला   है झंझारपुर थाना बैरमा गाँव की ,मंजुला देवी का अपने मैके के युवक लल्कू यादव से वर्षों से प्रेम चल रहा था /पांच वर्ष पूर्व दोनों  की आँखे चार हुई लेकिन दो वर्ष पूर्व मंजुला के परिवार वालों ने काफी धूम धाम से मंजुला कुमारी की शादी रामा मुखिया से कर दिया  ,शादी के बाद मंजुला अपने पति के साथ ससुराल आ गयी और पति के साथ रहने लगी इस बीच उसे एक बच्चा भी हुआ ,लेकिन उसका दिल अपने नैहर के युवक लालकु यादव पर ही लगा रहा /इस बिच प्रेमी युगल के बीच लुका छिपी मेल मिलाप चलता रहा /पति रमा मुखिया को अपनी पत्नी की बेवाफाई राश नहीं आ रहा था और पति ने अनोखा फैसला लिया /अपनी पत्नी के लव मिस्ट्री की कहानी को पंचायत के सरपंच के पास रखा और लिखित रूप अपनी पत्नी को प्रेमी के हवाले करने की गुहार सरपंच से लगाई /सरपंच की माने दोनों पति पत्नी के लिखित आवेदन पर मंजुला को उसके प्रेमी के हावाले कर गाँव के मंदिर में शादी करा कर उसे प्रेमी के साथ जाने दिया गया /कहा गया है प्रेम अंधा होता है जिसे सच कर दिखाया मंजुला और लल्कू यादव ने /मंजुला की शादी के दो वर्ष के बाद लालकु ने अपनी प्रेमिका को पा लिया /प्रेमिका अपनी एक वर्ष के बच्चे के साथ ससुराल से अपने मैके प्रेमी के घर चली गयी

परंपरागत फूलों का बढ़ता बाजार


                      
यूँ तो मधुबनी जिला की पहचान खाद्यान्न और बागवानी खेती के लिए जाना जाता है लेकिन कुछ प्रगितिशील किसानों ने परम्परागत खेती को छोड़ अब फूलों की खेती शुरू कर की है /फूलों की बगिया भी ऐसी की जी रहा ना जाए /फूलों की बगिया में जहां एक ओर परम्परागत फूलों गेंदा गेंदा ,गुलदाउदी ,  दहलिया ,जैसे  की भरमार है  वहीँ बगीचा में विलक्षण नील कमल का पौधा भी मौजूद हैं /जहां 
 एक और परम्परागत खेती के मुकाबले फूलों की खेती से काफी अच्छी आमदनी भी हो रही है /जहां गेंदा गुलाब गुल्दाऔदि ,दहेलिया के पौधों और फूलों की बिक्री से सामान्य आमदनी होती है वहीँ नीलकमल जैसे दुर्लभ पौधों की बिक्री से अच्छी खासी आमदनी होती है /फूलों की खेती से अच्छी आमदनी को देखकर मंगरौनी गाँव के दुसरे किसान और युवक भी ल्फुलों की खेती करना शुरू कर दिया है /अब मधुबनी से सटे मंगरौनी गाँव में फूलों की खेती की और किसान आकर्षित होने लगे हैं /

सिक्की कला


                                     
 
 मधुबनी का  सिक्कि कला बिहार की पुरानी कलाओं में से एक है/इस कला से बने उत्पाद लुभावने होते हैं और आम खरीददार की पहुँच के भीतर है /अब खर पतवार से बने इस अनुपम लोकोपयोगी वस्तुओं को विश्व स्टार पर प्रसिधी प्राप्त हो चुकी है ,हालांकि अन्य कलाओं की तरह इस कालाओं में भी विचौलिये हावी हैं 
 सीक एक प्रकार का खर - पतवार है जो हमारे खेत खलिहानों में उपजाए जाते हैं ,इसी सिक्कि से ऐसीकालाकृति बनती है जिसे देख कर आप दांतों टेल उंगली दबाने को विवश हो जायेंगे /सिक्कि से खूब सूरत हाथी टेबल कोबार दलिया मूर्ति गुलदस्ता सूर्य जैसे सामान ये कलाकार बनाते हैं /इस कला मेंल्बिस वर्ष बिता चुकी सुधा देवी बताती हैं आज भी वह स्वयं को वहीँ पाती है जहां कल थी . इस कला की  कलात्मक वस्तुओं का समुचित बाजार उपलब्ध नहीं     कला  के सिद्धस्त  को भी जीवन की गाडी को  चलाने में काफी 
 मशक्कत करनी पड़ रही है . हालांकि इस कला को सिखने के लिए कलाकारों को कोई  प्रशिक्षण नहीं दिया , इसे कलाकार पीढ़ी -- पीढ़ी अपनी दादी ,नानी से ही सिख लेती हैं /हालांकि सरकारी सहायता के अभाव में ये कलाकार सीजनल कच्चा माल का स्टाक नहीं कर पाती है / सिक्की कला के क्षेत्र में कई कलाकार राष्ट्रीय पुरस्कार पा चुके हैं /फिर भी सरकारी सहायता नहीं मिलने के कारण ठगा सा महसूस करतेहैं और इस ब्यबस्था को कोसते हैं /सिर्फ मधुबनी जिले में सैकड़ो कलाकार सिक्कि कला से जुड़े हुए हैं /कालाकारों की दयनीय स्थिति के और कला को प्रोत्साहन की बाबत सहायक आयुक्त का कहना है कई स्थानों में प्रशिक्षण शिविर लगाए गए हैं साथ ही कलाकारों को विचौलियों से 
 सावधान रहने की बात करते हैं/ बताते चले की जिले में कई एन जी ओ इन कलाकारों के तैयार माल को औने -पौने दामों में खरीद कर मालो मालहो गए हैं  /वहीँ इस कला के क्षेत्रों में जीवन गुजार चुकी कलाकार आज भी दाने -दाने को मोहताज हैं /  सरकारी उपेक्षा और उचित प्रोत्साहन के अभाव में विलुप्त होने के कगार पर पहुँच चूका है अनोखा कला सिक्कि कला /सरकारी सहायता
  एवं बाजार विकसित कर संकट के दौर से गुजर रहे इस कला को बचाया जा सकता है /विदेशी पर्यटक भी इस कला की और आकर्षित हो रहे हैं अगर सरकार इस कला के विकास पर नजर देती है तो सरकार को विदेशी मुद्रा आय के स्रोत में भी वृद्धि होगी.

Wednesday, March 13, 2013

पान के किसान बेहाल


                           मिथिला में पान को सामान का प्रतिक माना  जाता है लेकिन इस वर्ष हुए भीषण शीतलहर और बर्फ बारी ने छीन ली पान की लाली /प्रकृति की मार से किसानों की स्थिति दयनीय हो गयी और वे बिलकुल हताश हैं किसान आर्थिक रूप से पूरी तरह बर्बाद हो गए हैं /

                             मधुबनी जिले भीषण सहित लहर एवं बर्फ़बारी से सैकरों हैक्टेयर में लगे पान की फसल गल गया पान के एके ढुके लक्षी में ही पान  के पत्ते हैं /अधिकांश पौधों में सारे के सहारे सिर्फ पान की सुखी लत्ती ही दिख रही है/ पान की खेती से  जुड़े सैकरों किसान निराश हैं ,इनका  का  हुआ है परेशानी यह है की कर्ज में डूबे ये किसान पुनः अगले वर्ष  कैसे खेती करेंगे  पान को अधिक धुप व तेज पाला से बचाने के लिए चारों और से टाट ,सरई ,और खरही का बेरे लगा कर घेर जाता है /पिछले कई वर्षों से पान के 
किसान आर्थिक संकट के दौर से गुजर रहे हैं /सारे फसल बर्बाद होने के बाबजूद इन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला वही पान के लिए प्रसिद्ध मिथिलांचल के 
लोगों को अब बंगाल के पान से होठों को लाल करना पर रहा है /वही पान के ब्यव्सायियों को बंगाल से पान को मांगा कर बेचना पर रहा है जो काफी महंगा पर रहा है /
                                         
मिथिलांचल के  मधुबनी का पान सारे देश में प्रसिद्ध में प्रसिद्ध है लेकिन ठंढ और सुखार की मार  रहे किसानों को घाटे की खेती होने के कारण 

मधुबनी जिले के किसान पान की खेती से मुह  मोड़ रहे हैं /देखना  है आर्थिक तंगी झेल रहे किसानों को सरकार कोई मुआवजा का प्रावधान करती है या नहीं  

आपसी सौहर्द का प्रतिक है महावर


                  आपसी सौहर्द का प्रतिक है महावर
               * छठ पूजा  इसके बिना रह जाएगा अधूरा 

छठ पूजा पूरे बिहार के साथ बंगाल, पूर्वी उत्तरप्रदेश, नेपाल की तराई के साथ-साथ असम के कुछ भागों में भी मनाया जाता हैं। यह पूजा अब इन इलाकों से बाहर निकलते हुए देश के अन्य भागों में भी होने लगी हैं। इस पूजा के प्रयोग होने वाले पूजा सामग्रीयों की अपनी ही विशेषता होती हैं। छोटी भी पूजा सामग्री अपनी ही विशेषता रखती हैं। इस पूजा में प्रयोग होने वाला महावर का अपना ही महत्व है। गौरतलब है कि महावर सिर्फ डुमरांव में ही बनाया जाता हैं। डुमरांव की चिक टोली में। इस महावर को मुस्लिमों के द्वारा बनाया जाता हैं। भारतीय राजनीतिक दल भले ही अपनी वोट बैंक की राजनीति के लिए हिन्दू मुस्लिमों को अलग कर अपनी राजनीतिक रोटियों को सेकने की कोशिश करे, परंतु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जिस प्रकार देव प्रयाग में भागीरथी व अलकनन्दा एक साथ सम्मिलित होकर गंगा नदी का निर्माण करती है गंगा नदी के निर्माण के बाद भागीरथी व अलकनन्दा के जलों को जिस प्रकार अलग नहीं किया जा सकता हैं उसी प्रकार भारतीय सभ्यता और संस्कृति में हिन्दू और मुस्लमान इस प्रकार से घुले-मिले हुए है कि इनको अलग नहीं किया जा सकता हैं। हरेक पूजा पाठ में दोनों कही ना कही एक दूसरे का योगदान करते हैं। महावर बनाने वाली एक मुस्लिम महिला जुबैना खातुन का कहना है कि छठी मईया सबकी है इस लिए महावर बनाते वक्त स्वच्छता का विशेष ध्यान रखना पड़ता हैं। जानकारों का कहना है कि यह पूजा में अपना अलग ही महत्व रखता है इसके बिना पूजा को पूरा नहीं मना जा सकता हैं। महावर को बनाने के लिए रूई को छोटा-छोटा गोल बनाकर रखा जाता है इसके बाद मैदा या माढ़ के घोल को तैयार किया जाता है इसमें लाल रंग को मिलाया जाता है इस घोल को छोटे-छोटे रूई के टुकड़ो को थाली पर डाला जाता है इसके बाद इनके ऊपर एक तिनका रखा जाता है तिनका इसलिए रखा जाता है कि सुखने के बाद इन्हें आसानी से निकाला जा सके। रूई सुखने के लिए धूप में डाल दिया जाता है। अच्छी तरह से सुख जाने के बाद इनका बंडल बनाकर बाजारों में बेचा जाता हैं। देश के जिन भागों में भी छठ पूजा होती है वहां पर डुमरांव से महावर भेजा जाता हैं। डुमरांव के तकरीबन 30 से 40 परिवार इसे बनाते है इसे मुख्यतः महिलाओं के द्वारा बनाया जाता है। जुबैना खातुन का कहना है कि इस महावर को बनाने में काफी मेहनत लगती है, लेकिन जिस हिसाब से मेहनत होती है उस प्रकार से हमें मेहनताना नहीं मिल पाता हैं। सरकार भी हमारी तरफ कोई ध्यान नहीं देती हैं। जिससे हमलोगों को कोई सरकारी लाभ मिल सके। हमलोग इसे बनाने का कार्य इसलिए करते रहते है जिससे छठी मईया की कृपा हमलोगों पर बनी रहे।
                                                        -नवीन पठक (पत्रकार)


हार में सिनेमा : किसकी चिंता कितनी जायज


                      
                                                                                  - मुरली मनोहर श्रीवास्तव, वरिष्ठ पत्रकार, पटना

मुंबई में बैठे लोगों से भोजपुरी भाषा के विकास की बात, सुन कर अच्छा लगता है. निश्चित रूप से वे लोग सक्षम हैं भोजपुरी भाषा की विकास करने के लिए. कुछ ऐसे लोग भी हैं बिहार से, जो भोजपुरी भाषा में बन रही फिल्म के विकास को लेकर चिंतित हैं. स्वागत योग्य है यह विचार; लेकिन क्या सिर्फ चिंता व्यक्त कर अखबार में छपने से भोजपुरी भाषा और भोजपुरी फिल्म का विकास हो जायेगा ? एक दूसरे पर दोषारोपण करने से विकास हो जायेगा ?
इस वर्ष भोजपुरी सिमेना के 50 साल पूरे हुए हैं. सिने सोसाइटी पटना और पाटलिपुत्र फ़िल्म्स ऐंड टेलीविजन एकेडमी के संयुक्त प्रयास से पाटलिपुत्र फिल्म ऐंड टेलीविजन एकेडमी के परिसर में 21 फरवरी, 2013 को भोजपुरी सिनेमा का अतित, वर्तमान और भविष्य विषय पर संगोष्टी का आयोजन किया गया. इसका पूरा श्रेय सिने सोसाइटी के मीडिया प्रबंधक व पाटलिपुत्र फिल्म्स ऐन्ड टेलीविजन एकेडमी में राइटिंग फैकल्टी रविराज पटेल को जाता है. इस संगोष्ठी में रंगमच और सिनेमा से सम्बन्ध रखनेवाले कुछ प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल हुए और उपरोक्त विषय पर गंभीर चर्चा हुई.
राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम ने बाज़ार को ध्यान में रखकर सिनेमा बनानेवालों के लिए कहा कि वे चाहते हैं कि ब्रा और बिकनी में नायिकाएं समुन्दर में नहाए, और इस तरह की फिल्म लोग परिवार के साथ जाकर सिनेमा हॉल में देखें. देश और विदेश के लोग जब बिहार आते हैं तो उन्हें भी बिहार में भारत की संस्कृति दिखती है तो क्या यहाँ इस तरह की फिल्म के लिए बिहार में बाज़ार खोजा जा सकता है ?
पाटलिपुत्र फिल्म ऐंड टेलीविजन एकेडमी के निदेशक संतोष प्रसाद ने कहा कि फिल्में न सिर्फ कला, संस्कृति, साहित्य के साथ साथ आज की तकनीकी ज्ञान को दर्शकों तक पहुचाती है;बल्कि उनपर गहरा असर भी डालती है. इसलिए यह ज़रूरी है कि फिल्म निर्माण को सिर्फ कमाई का जरिया न बनाकर मनोरंजन के साथ साथ विकास का वाहक बनाया जाए.
प्रभात खबर, दैनिक जागरण, आज और सन्मार्ग जैसे कुछ अखबारों ने इस खबर को प्राथमिकता दी तो कुछ अखबार ने इसे खबर नहीं माना... प्रभात खबर ने जब यह बात मुंबई में बैठे कुछ लोगों तक पहुंचाई तो उन्हें ऐसा लगा कि कुछ छपने के लिए बोलना चाहिए...और उन्होंने कहा कि 50 साल में भोजपुरी सिनेमा का जितना विकास होना चाहिए था, नहीं हुआ. इसके लिए ज़िम्मेदार अलग अलग लोग हैं. किसी एक के माथे इसका ठीकरा नहीं फोड़ा जा सकता.. इसमें आज की पीढ़ी का नाम ले तो सबसे पहले मनोज तिवारी मृदुल का नाम आता है जो एक लोकगायक से भोजपुरी सिनेमा के चर्चित अभिनेता बने हैं. भोजपुरी सिनेमा ने उन्हें विश्व पटल पर खड़ा किया है, ऐसा उन्होंने कई बार माना है. मारिशस, फिजी से लेकर त्रिनाद, टोबागो तक भोजपुरी का गुणगान गाने के लिए पहुंचे हैं. फ़क्र होता है. लेकिन जब भोजपुरी सिनेमा के विकास के बारे में उनसे बात की जाती है, तो वे इसलिए कुछ नहीं कह पाते क्योंकि वे जानते हैं कि भोजपुरी सिनेमा से पैसा कमाकर क्रिकेट के लिए मैदान बनाने में लग गए हैं.
दुसरे नंबर पर आते है गीतकार, लेखक, अभिनेता, विधायक और निर्माता- निर्देशक विनय बिहारी. इन्हें भोजपुरी गीतकार में सबसे ज्यादा गीत लिखने के लिए लिम्का बुक में नाम दर्ज होने का सौभाग्य मिला है. इन्होने बहुत सारे चर्तित गीत लिखे हैं. भोजपुरी गीतों के पर्याय का नाम है विनय बिहारी. भोजपुरी भाषी लोग इनसे भी नाराज़ रहते हैं और आरोप लगाते हैं कि सत्ता पक्ष में रहते हुए भी भोजपुरी भाषा और भोजपुरी फिल्म के विकास के लिए कुछ ख़ास नहीं किया है. यहाँ तक कहते हैं कि विधान सभा में भोजपुरी सिनेमा के विकास को लेकर एक सवाल तक नहीं करते हैं. सच्चाई कुछ भी हो, वरिष्ठ फिल्म समीक्षक आलोक रंजन के मुताबिक भोजपुरी, भाजिपुरी के दौर से गुज़रते हुए आज भेलपुरी तक पहुँच गई है.
रविकिशन, दिनेश लाल यादव, मोनालिसा, रिंकू घोष, पंखी हेन्गड़े और तमाम युवा कलाकार सिर्फ और सिर्फ पैसे के लिए भोजपुरी फिल्म करते हैं. इसलिए भोजपुरी सिनेमा के विकास के लिए इनका जो योगदान हैं वो सराहनीय है.
देशवा फिल्म के युवा निर्माता निर्देशक नितिन चंद्रा का मानना है कि भोजपुरी भाषा और फिल्म का विकास तभी होगा जब प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक में भोजपुरी भाषा को शामिल किया जाए. क्या भोजपुरी भाषा बोलने और समझने वाले की संख्या कम है ? निश्चित जवाब न में होगा. क्योंकि भारत भर में हिंदी के बाद भोजपुरी ही एक ऐसी भाषा है जिसे सबसे ज्यादा लोग बोलते और समझते हैं.
न्याय के साथ विकास की नारा देनेवाले नितिश कुमार ने पांच छ: साल पहले कहा था कि बिहार में फिल्म निर्माण के लिए अवसर पैदा करेंगे और उन्होंने इसके लिए दो सौ करोड़ रुपये का एक अनुमानित बजट भी रखा था. लेकिन आजतक कुछ नहीं हुआ. क्यों नहीं हुआ इसपर आजतक सब चुप हैं. सरकार भी चुप है क्योंकि महाराष्ट्र में अभी मनसे और शिवसेना के कार्यकर्ता किसी बिहारी को यह कहकर नहीं पीट रहे हैं कि तुम यहाँ फिल्म नहीं बना सकते हो. फिल्म बनानी है तो बिहार जाओ. बिहार में उद्द्योग की भारी कमी है. वितीय वर्ष 2012-2013 में उद्द्योग के लिए करीब बतीस सौ करोड़ रुपये का प्रावधान है. लेकिन फिल्म के लिए बतीस करोड़ भी नहीं है.
फिल्म निर्माण में अब युवा वर्ग अपना भविष्य तलाशने और तराशने लगा है. लेकिन ज़रुरत है अभिभावक को उनका साथ देने की. आज की पीढ़ी लगनशील और कर्मठ है. अगर उनपर भरोसा कर उनका उत्साह बढाया जाए तो निश्चित रूप से आनेवाले समय में युवा पीढ़ी सिनेमा के क्षेत्र में भी सफलता की नयी इबारत लिखेगी.
बिहार हिंदी भाषी राज्य है. साथ में भोजपुरी, मैथिलि, अंगिका, मगही जैसी अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ प्रमुखता से बोली और समझी जाती है. इसलिए बिहार में पटना को अगर केंद्र बनाकर इन तमाम बोली और भाषा में फिल्में और धारावाहिक बने तो निश्चित रूप से बिहार में सिनेमा को स्थापित किया जा सकता है. और इसे रोजगार परक भी बनाया जा सकता है.
जी टीवी पर चर्चित धारवाहिक ‘अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो’, अफसर बिटिया, स्टार प्लस पर ‘तेरे मेरे सपने’ कलर्स चैनल पर ‘भाग्यविधाता’ जैसे क्षेत्रीय भाषा में बने धारावाहिको ने साबित कर दिया है कि क्षेत्रीय भाषा में दर्शको को ज्यादा मनोरंजन किया जा सकता है. अगर यह चैनल बिहार से धारावाहिकों को प्रसारित करते तो क्या लोग इसे नहीं देखते ? ज़रुरत है सरकारी और निजी चैनलों को बिहार में अपना कारोबार शुरू करने की, जिससे यहाँ भी सिनेमा और धारावाहिकों के माध्यम से राज्य के विकास को और गति दी जा सके.    

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HIMMAT SE KAM LOGE TO ZMANA V SATH DEGA...HO GAYE KAMYAB TO BCHACHA-BCHCHA V NAM LEGA.....MAI EK BAHTE HWA KA JHOKA HU JO BITE PAL YAD DILAUNGA...HMESHA SE CHAHT HAI KI KUCHH NYA KAR GUZRNE KI...MAI DUNIA KI BHID ME KHONA NHI CHAHTA....