Friday, September 4, 2009


षिक्षक दिवस - डा. राधा कृष्णन


5 सितंबर केा पूरे भारत में षिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है । इसी दिन 1888 इसवी में भारत कें दूसरे राष्ट्रपति डा. सर्वपल्लवी राधा कृष्णन का जन्म हुआ था । राधाकृष्णन 1952 में भारत कें पहले उपराष्ट्रपति बने। फिर 1962 में देष के राष्ट्रपति बने । राष्ट्रपति बनने के बाद इनके कुछ विघार्थी और दोस्त इनके पास कर बोले कि हम आपके जन्म दिन को षिक्षक दिवस के रूप में मनाना चाहते है। इस आग्रह को राधाकृणन ने स्वीकार कर लिया और तब से षिक्षक 5 सितम्बर षिक्षक दिवस के रूप में मनाया जानंे लगा ।
षिक्षक दिवस- 5 सितंबर


षिक्षक काम है ज्ञान एकत्र करना या प्राप्त करना और फिर उसे बांटना । ज्ञान का दीपक बना कर चारों तरफ अपना प्रकाष विकीर्ण करना । हमारे समाज में आदिकाल से ही गुरू षिष्य पंरमरा चलते आ रही है । चाहे राम या विष्वामित्र हो या अजुर्न द्रोण और एकलब्य। इतिहास साक्षी है ंहमेषा हम गुरू को भगवान के उपर का दर्जा देते हं।ै इतना ही नही हम को गुरू को ब्रह्मा मनाते हैं। इस बात को साबित करता है ये दो ष्ष्लोक
1 गुरूब्रर्हमा गुरूर्विष्णु गुरूदंेवो महेष्वरः गुरू साक्षात परब्रहा तस्मै श्री गुरूवे नमः
2 गुरू गोविद दोउ खडे काको लागे पांव बलिहारी गुरू आपकी गोविद दियो बताए पहले के समय मेें जहां गुरू षिष्य संबंध पवित्र था, गुरू के एक मांग को षिष्य सबकुछ निछावर करके पूरा कर देते थे । महाभारत के समय में द्रोण ने जब एकलब्य से उसका अगंुठा मगा तो बिना कुछ सोचे एकलब्य ने अपनी षिष्य कर्तव्य को पूरा किया जिसको लेकर वह आज भी अमर है । पहले के षिष्य जहां अपनी कर्तव्य निभाया वही गुरूओं ने भी अपना कर्तव्य बखूबी पूरा किया ।
आज के दौर में गुरू षिष्य........
जहां सब कुछ पर बाजारवाद हावी हो चूका हेै वहा पर यह पवित्र रिष्ता भी जैसे बाजारवाद का षिकार हो गया है । इस रिष्ते को भी कलयूग जैसे निगलते जा रहा है आज ना वह एकलब्य रहे ना वे द्रोर्ण। आज इनका रूप बदल चूका है । षिक्षण एक व्यवसाय बन चूका है । षिक्षण संस्थान तरह-तरह के लुभावने विज्ञापन देकर बच्चो को लुभाते है तब षुरू होती है व्यवसायिकता। जिसकी बुनियाद होती है पैसा और केवल पैसा । ना पवित्र संबंध ना षिक्षा लेने या ना देने की परम्परा । आज कई ऐसे मामले सामने आऐ है जो इस संबध को तार तार कर देता हेै ।हाल ही में मटुक नाथ जूली प्रकरण इसका जीता जागता सबूत है । षिष्यों का गंुरूओ पर हाथ उढाना गाली दंेना जैसे पंरमपरा बनती जा रही है दो चार दिन पहले पटना के नामी काॅलेज में छात्रों ने जिस तरह से एक प्रांेफंेसर का हाथ तोड दिया है यह बहूत ही ष्षर्मनाक है
आज भी जब एक षिक्षक ही छात्र के जीवन में फैले अंधेरे को दूर करता है उसके जीवन में प्रकाष फैलाता है । वहा इस संबध केा फिर से एक पवित्र और पाक बनाने के लिए ंगंुरू और षिष्य दोनो को मिलकर सांेचना चाहिए और समाज के विद्वानेा को भी इसकें लिए आगे आने की जरूरत है । । आज कल षिक्षा और गुरू और षिष्य संबंध में गिरावट आ रही है । इस संबंधो की पवि़त्रता पर ग्रहण लगते जा रहे है इसमें 5 सितम्बर का दिन एक इस संबधो की पवित्रता का स्मरण करा जाता है । सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बारे में कुछ महप्वपूर्ण जानकारियाॅ
डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धिमतापूर्ण व्याख्याओं, आनंददायी अभिव्यक्ति और हँसाने, गुदगुदाने वाली कहानियों से अपने छात्रों को मंत्रमुग्ध कर दिया करते थे। वे छात्रों को प्रेरित करते थे कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। वे जिस विषय को पढ़ाते थे, पढ़ाने के पहले स्वयं उसका अच्छा अध्ययन करते थे। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वे अपनी शैली की नवीनता से सरल और रोचक बना देते थे।

वे कहते थे कि विश्वविद्यालय गंगा-यमुना के संगम की तरह शिक्षकों और छात्रों के पवित्र संगम हैं। बड़े-बड़े भवन और साधन सामग्री उतने महत्वपूर्ण नहीं होते, जितने महान शिक्षक। विश्वविद्यालय जानकारी बेचने की दुकान नहीं हैं, वे ऐसे तीर्थस्थल हैं जिनमें स्नान करने से व्यक्ति को बुद्धि, इच्छा और भावना का परिष्कार और आचरण का संस्कार होता है। विश्वविद्यालय बौद्धिक जीवन के देवालय हैं, उनकी आत्मा है ज्ञान की शोध। वे संस्कृति के तीर्थ और स्वतंत्रता के दुर्ग हैं।

उनके अनुसार उच्च शिक्षा का काम है साहित्य, कला और व्यापार-व्यवसाय को कुशल नेतृत्व उपलब्ध कराना। उसे मस्तिष्क को इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि मानव ऊर्जा और भौतिक संसाधनों में सामंजस्य पैदा किया जा सके। उसे मानसिक निर्भयता, उद्देश्य की एकता और मनकी एकाग्रता का प्रशिक्षण देना चाहिए। सारांश यह कि शिक्षा 'साविद्या या विमुक्तये' वाले ऋषि वाक्य के अनुरूप शिक्षार्थी को बंधनों से मुक्त करें।

डॉ. राधाकृष्णन के जीवन पर महात्मा गाँधी का पर्याप्त प्रभाव पड़ा था। सन्‌ 1929 में जब वे ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में थे तब उन्होंने 'गाँधी और टैगोर' शीर्षक वाला एक लेख लिखा था। वह कलकत्ता के 'कलकत्ता रिव्हयू' नामक पत्र में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने गाँधी अभिनंदन ग्रंथ का संपादन भी किया था। इस ग्रंथ के लिए उन्होंने अलबर्ट आइंस्टीन, पर्ल बक और रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे चोटी के विद्वानों से लेख प्राप्त किए थे। इस ग्रंथ का नाम था 'एन इंट्रोडक्शन टू महात्मा गाँधी : एसेज एंड रिफ्लेक्शन्स ऑन गाँधीज लाइफ एंड वर्क।' इस ग्रंथ को उन्होंने गाँधीजी को उनकी 70वीं वर्षगाँठ पर भेंट किया था।

अमरीका में भारतीय दर्शन पर उनके व्याख्यान बहुत सराहे गए। उन्हीं से प्रभावित होकर सन्‌ 1929-30 में उन्हें मेनचेस्टर कॉलेज में प्राचार्य का पद ग्रहण करने को बुलाया गया। मेनचेस्टर और लंदन विश्वविद्यालय में धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन पर दिए गए उनके भाषणों को सुनकर प्रसिद्ध दार्शनिक बर्टरेंट रसेल ने कहा था, 'मैंने अपने जीवन में पहले कभी इतने अच्छे भाषण नहीं सुने। उनके व्याख्यानों को एच.एन. स्पालिंग ने भी सुना था। उनके व्यक्तित्व और विद्वत्ता से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में धर्म और नीतिशास्त्र विषय पर एकचेअर की स्थापना की और उसे सुशोभित करने के लिए डॉ. राधाकृष्ण को सादर आमंत्रित किया। सन्‌ 1939 में जब वे ऑक्सफोर्ड से लौटकर कलकत्ता आए तो पंडित मदनमोहन मालवीय ने उनसे अनुरोध किया कि वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर का पद सुशोभित करें। पहले उन्होंने बनारस आ सकने में असमर्थता व्यक्त की लेकिन अब मालवीयजी ने बार-बार आग्रह किया तो उन्होंने उनकी बात मान ली। मालवीयजी के इस प्रयास की चारों ओर प्रशंसा हुई थी।

सन्‌ 1962 में वे भारत के राष्ट्रपति चुने गए। उन दिनों राष्ट्रपति का वेतन 10 हजार रुपए मासिक था लेकिन प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद मात्र ढाई हजार रुपए ही लेते थे और शेष राशि प्रधानमंत्री के राष्ट्रीय राहत कोष में जमा करा देते थे। डॉ. राधाकृष्णन ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की इस गौरवशाली परंपरा को जारी रखा। देश के सर्वोच्च पद पर पहुँचकर भी वे सादगीभरा जीवन बिताते रहे। 17 अप्रैल 1975 को हृदयाघात के कारण उनका निधन हो गया। यद्यपि उनका शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया तथापि उनके विचार वर्षों तक हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे।

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HIMMAT SE KAM LOGE TO ZMANA V SATH DEGA...HO GAYE KAMYAB TO BCHACHA-BCHCHA V NAM LEGA.....MAI EK BAHTE HWA KA JHOKA HU JO BITE PAL YAD DILAUNGA...HMESHA SE CHAHT HAI KI KUCHH NYA KAR GUZRNE KI...MAI DUNIA KI BHID ME KHONA NHI CHAHTA....