Wednesday, October 14, 2009


म्यूजियम की शोभा चाक और कुम्हार


रौशनी का पर्व दिवाली के नजदीक आते हीं दिए बनाने का काम जोर-शोर से शुरू होता है। और सालों भर बेरोजगारी की मार झेलने वाले कुम्हार भी इस समय का बहुत पहले से इंतजार करते हैं....ताकि वो अपने घरौंदे को न जगमगा तो कम से कम रौशन तो जरूरे हो सकें।

मिट्टी के वो कारीगर....जो मिट्टी को तराश कर उससे लोगों के घरौंदों को रौशन भी करते हैं..... एक अदभुत कलाकारी का नमूना भी है। और इस कलाकारी के बदले हीं जलते हैं इनके घरों के चुल्हे। लेकिन westernization के दौर में इनकी इस कलाकारी का कोई खास मोल लोगों की नजरों में नहीं बचा है। तभी तो कभी...जहां 8000 से 10 हजार दीयों की बिक्री होती थी, वो आज महज 3000 से 5 हजार पर सिमट कर रह गई है।
वैसे इनकी जिन्दगी की दास्तान भी अजीब होती है। सारा का सारा परिवार बड़े हीं शिद्दत के साथ लगा रहता है.....देखिए न कोई माटी सानता है.. कोई चाक चलाकर उसे आकार देता है....तो कोई उन आकृतियों को रंगने में लीन है। लेकिन अपने काम में लीन तो हैं....लेकिन एक चिंता इनको सता रही है....कि वो कहीं दुसरे कुम्हारों की तरह इन्हें भी अपना व्यवसाय बदलना न पड़े। क्योंकि आधुनिकता के इस दौर में जहां पारंपरिक दियों की जगह chineese bulb और झालर ने ले ली है....ऐसे में उनके लिए दो जून की रोटी जुटा पाना भी मुश्किल हो गया है।
fashion trend और बदलाव का दौर अगर यूं हीं जारी रहा.... तो वो दिन भी दूर नहीं जब कुम्हार की शान कही जीने वाली चाक antique बनकर meauseum की शोभा हीं बढ़ा पाएगा।

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HIMMAT SE KAM LOGE TO ZMANA V SATH DEGA...HO GAYE KAMYAB TO BCHACHA-BCHCHA V NAM LEGA.....MAI EK BAHTE HWA KA JHOKA HU JO BITE PAL YAD DILAUNGA...HMESHA SE CHAHT HAI KI KUCHH NYA KAR GUZRNE KI...MAI DUNIA KI BHID ME KHONA NHI CHAHTA....