- मुरली
मनोहर श्रीवास्तव,
वरिष्ठ
पत्रकार, पटना
मुंबई
में बैठे लोगों से भोजपुरी
भाषा के विकास की बात,
सुन कर अच्छा
लगता है. निश्चित
रूप से वे लोग सक्षम हैं भोजपुरी
भाषा की विकास करने के लिए.
कुछ ऐसे लोग
भी हैं बिहार से, जो
भोजपुरी भाषा में बन रही फिल्म
के विकास को लेकर चिंतित हैं.
स्वागत योग्य
है यह विचार; लेकिन
क्या सिर्फ चिंता व्यक्त कर
अखबार में छपने से भोजपुरी
भाषा और भोजपुरी फिल्म का
विकास हो जायेगा ? एक
दूसरे पर दोषारोपण करने से
विकास हो जायेगा ?
इस
वर्ष भोजपुरी सिमेना के 50
साल पूरे हुए
हैं. सिने
सोसाइटी पटना और पाटलिपुत्र
फ़िल्म्स ऐंड टेलीविजन एकेडमी
के संयुक्त प्रयास से पाटलिपुत्र
फिल्म ऐंड टेलीविजन एकेडमी
के परिसर में 21 फरवरी,
2013 को “भोजपुरी
सिनेमा का अतित, वर्तमान
और भविष्य”
विषय पर संगोष्टी का आयोजन
किया गया. इसका
पूरा श्रेय सिने सोसाइटी के
मीडिया प्रबंधक व पाटलिपुत्र
फिल्म्स ऐन्ड टेलीविजन एकेडमी
में राइटिंग फैकल्टी रविराज
पटेल को जाता है. इस
संगोष्ठी में रंगमच और सिनेमा
से सम्बन्ध रखनेवाले कुछ
प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल
हुए और उपरोक्त विषय पर गंभीर
चर्चा हुई.
राष्ट्रीय
पुरस्कार प्राप्त प्रसिद्ध
फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम
ने बाज़ार को ध्यान में रखकर
सिनेमा बनानेवालों के लिए
कहा कि वे चाहते हैं कि ब्रा
और बिकनी में नायिकाएं समुन्दर
में नहाए, और
इस तरह की फिल्म लोग परिवार
के साथ जाकर सिनेमा हॉल में
देखें. देश
और विदेश के लोग जब बिहार आते
हैं तो उन्हें भी बिहार में
भारत की संस्कृति दिखती है
तो क्या यहाँ इस तरह की फिल्म
के लिए बिहार में बाज़ार खोजा
जा सकता है ?
पाटलिपुत्र
फिल्म ऐंड टेलीविजन एकेडमी
के निदेशक संतोष प्रसाद ने
कहा कि फिल्में न सिर्फ कला,
संस्कृति,
साहित्य के
साथ साथ आज की तकनीकी ज्ञान
को दर्शकों तक पहुचाती है;बल्कि
उनपर गहरा असर भी डालती है.
इसलिए यह ज़रूरी
है कि फिल्म निर्माण को सिर्फ
कमाई का जरिया न बनाकर मनोरंजन
के साथ साथ विकास का वाहक बनाया
जाए.
प्रभात
खबर, दैनिक
जागरण, आज
और सन्मार्ग जैसे कुछ अखबारों
ने इस खबर को प्राथमिकता दी
तो कुछ अखबार ने इसे खबर नहीं
माना... प्रभात
खबर ने जब यह बात मुंबई में
बैठे कुछ लोगों तक पहुंचाई
तो उन्हें ऐसा लगा कि कुछ छपने
के लिए बोलना चाहिए...और
उन्होंने कहा कि 50 साल
में भोजपुरी सिनेमा का जितना
विकास होना चाहिए था,
नहीं हुआ.
इसके लिए
ज़िम्मेदार अलग अलग लोग हैं.
किसी एक के
माथे इसका ठीकरा नहीं फोड़ा
जा सकता.. इसमें
आज की पीढ़ी का नाम ले तो सबसे
पहले मनोज तिवारी मृदुल का
नाम आता है जो एक लोकगायक से
भोजपुरी सिनेमा के चर्चित
अभिनेता बने हैं. भोजपुरी
सिनेमा ने उन्हें विश्व पटल
पर खड़ा किया है, ऐसा
उन्होंने कई बार माना है.
मारिशस,
फिजी से लेकर
त्रिनाद, टोबागो
तक भोजपुरी का गुणगान गाने
के लिए पहुंचे हैं. फ़क्र
होता है. लेकिन
जब भोजपुरी सिनेमा के विकास
के बारे में उनसे बात की जाती
है, तो
वे इसलिए कुछ नहीं कह पाते
क्योंकि वे जानते हैं कि
भोजपुरी सिनेमा से पैसा कमाकर
क्रिकेट के लिए मैदान बनाने
में लग गए हैं.
दुसरे
नंबर पर आते है गीतकार,
लेखक,
अभिनेता,
विधायक और
निर्माता- निर्देशक
विनय बिहारी. इन्हें
भोजपुरी गीतकार में सबसे
ज्यादा गीत लिखने के लिए लिम्का
बुक में नाम दर्ज होने का
सौभाग्य मिला है. इन्होने
बहुत सारे चर्तित गीत लिखे
हैं. भोजपुरी
गीतों के पर्याय का नाम है
विनय बिहारी. भोजपुरी
भाषी लोग इनसे भी नाराज़ रहते
हैं और आरोप लगाते हैं कि सत्ता
पक्ष में रहते हुए भी भोजपुरी
भाषा और भोजपुरी फिल्म के
विकास के लिए कुछ ख़ास नहीं
किया है. यहाँ
तक कहते हैं कि विधान सभा में
भोजपुरी सिनेमा के विकास को
लेकर एक सवाल तक नहीं करते
हैं. सच्चाई
कुछ भी हो, वरिष्ठ
फिल्म समीक्षक आलोक रंजन के
मुताबिक भोजपुरी, भाजिपुरी
के दौर से गुज़रते हुए आज भेलपुरी
तक पहुँच गई है.
रविकिशन,
दिनेश लाल
यादव, मोनालिसा,
रिंकू घोष,
पंखी हेन्गड़े
और तमाम युवा कलाकार सिर्फ
और सिर्फ पैसे के लिए भोजपुरी
फिल्म करते हैं. इसलिए
भोजपुरी सिनेमा के विकास के
लिए इनका जो योगदान हैं वो
सराहनीय है.
देशवा
फिल्म के युवा निर्माता निर्देशक
नितिन चंद्रा का मानना है कि
भोजपुरी भाषा और फिल्म का
विकास तभी होगा जब प्राथमिक
शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा
तक में भोजपुरी भाषा को शामिल
किया जाए. क्या
भोजपुरी भाषा बोलने और समझने
वाले की संख्या कम है ?
निश्चित जवाब
न में होगा. क्योंकि
भारत भर में हिंदी के बाद
भोजपुरी ही एक ऐसी भाषा है
जिसे सबसे ज्यादा लोग बोलते
और समझते हैं.
न्याय
के साथ विकास की नारा देनेवाले
नितिश कुमार ने पांच छ:
साल पहले कहा
था कि बिहार में फिल्म निर्माण
के लिए अवसर पैदा करेंगे और
उन्होंने इसके लिए दो सौ करोड़
रुपये का एक अनुमानित बजट भी
रखा था. लेकिन
आजतक कुछ नहीं हुआ. क्यों
नहीं हुआ इसपर आजतक सब चुप
हैं. सरकार
भी चुप है क्योंकि महाराष्ट्र
में अभी मनसे और शिवसेना के
कार्यकर्ता किसी बिहारी को
यह कहकर नहीं पीट रहे हैं कि
तुम यहाँ फिल्म नहीं बना सकते
हो. फिल्म
बनानी है तो बिहार जाओ.
बिहार में
उद्द्योग की भारी कमी है.
वितीय वर्ष
2012-2013 में
उद्द्योग के लिए करीब बतीस
सौ करोड़ रुपये का प्रावधान
है. लेकिन
फिल्म के लिए बतीस करोड़ भी
नहीं है.
फिल्म
निर्माण में अब युवा वर्ग
अपना भविष्य तलाशने और तराशने
लगा है. लेकिन
ज़रुरत है अभिभावक को उनका साथ
देने की. आज
की पीढ़ी लगनशील और कर्मठ है.
अगर उनपर भरोसा
कर उनका उत्साह बढाया जाए तो
निश्चित रूप से आनेवाले समय
में युवा पीढ़ी सिनेमा के क्षेत्र
में भी सफलता की नयी इबारत
लिखेगी.
बिहार
हिंदी भाषी राज्य है.
साथ में भोजपुरी,
मैथिलि,
अंगिका,
मगही जैसी अन्य
क्षेत्रीय भाषाएँ प्रमुखता
से बोली और समझी जाती है.
इसलिए बिहार
में पटना को अगर केंद्र बनाकर
इन तमाम बोली और भाषा में
फिल्में और धारावाहिक बने तो
निश्चित रूप से बिहार में
सिनेमा को स्थापित किया जा
सकता है. और
इसे रोजगार परक भी बनाया जा
सकता है.
जी
टीवी पर चर्चित धारवाहिक ‘अगले
जनम मोहे बिटिया ही कीजो’,
अफसर बिटिया,
स्टार प्लस
पर ‘तेरे मेरे सपने’ कलर्स
चैनल पर ‘भाग्यविधाता’ जैसे
क्षेत्रीय भाषा में बने
धारावाहिको ने साबित कर दिया
है कि क्षेत्रीय भाषा में
दर्शको को ज्यादा मनोरंजन
किया जा सकता है. अगर
यह चैनल बिहार से धारावाहिकों
को प्रसारित करते तो क्या लोग
इसे नहीं देखते ? ज़रुरत
है सरकारी और निजी चैनलों को
बिहार में अपना कारोबार शुरू
करने की, जिससे
यहाँ भी सिनेमा और धारावाहिकों
के माध्यम से राज्य के विकास
को और गति दी जा सके.
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