Tuesday, February 12, 2013

कोसी की टीस (कविता)

कोसी की टीस.............................

दूर-दूर तक..
बंजर जमीन है,
रहने को खुली आसमां बेघर लोग हैं....
पूरी जिन्दगी किसी तरह कट गई
लेकिन दर-दर की ठोकर खाता अभिशप्त बुढ़ापा है...
खिलने से पहले
मुरझाता और अपना भटकता बचपन है...
ये वही बाढ़ पीड़ित हैं
जिनके दिलों में आज भी
कोसी के तबाही की टीस है...
न घर-बार ना कोई ठिकाना है
विडंबना के इस मौजूदा चेहरे का,
गरीबी पीछा छोड़ने का तैयार नहीं,
बावजुद इसके अपनी झोपड़पटटी में रहकर
हंसी-खुशी
किसी तरह जीवन के दिन काट रहे हैं.....
इनकी खुशीयों पर कोसी ने ग्रहण लगा दिया
लाखों हो गए बेघर
तो अभागों के लिए सड़क का किनारा,
नहर कि पटरियां हीं आज ठिकाना हो गया है...
दम तोड़ती उम्मीदें नजर आ रही हैं,
कभी लहलहाते खेतों को भी कोसी बहा ले गयी
अब सोना उगलने वाले खेत भी विरान हैं...
कल क्या होगा ?
किसे मालूम,
सब कुछ गंवा चुके
इन बेसहारों की मरघट की तरह जीना जिन्दगी बन गई है....
कोसी प्रलय के महिनों बीत गए
लोगों को मिली विरासत में भुखमरी,
अशिक्षा,कुपोषणऔर क्या कहुं,
कुशहा तटबंध टूटने से
यहां तबाही के निशांआज भी मौजूद हैं....
तबाही का---
आलम क्या था ?
क्या खंडहर !सब बयां कर रहा है.....
चारो ओर पानी हीं पानी है,
यही इन बेचारों की कहानी है,
बोलेंगे ये क्या ?
सब कुछ---इनकी बंद जुबानी है...........

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HIMMAT SE KAM LOGE TO ZMANA V SATH DEGA...HO GAYE KAMYAB TO BCHACHA-BCHCHA V NAM LEGA.....MAI EK BAHTE HWA KA JHOKA HU JO BITE PAL YAD DILAUNGA...HMESHA SE CHAHT HAI KI KUCHH NYA KAR GUZRNE KI...MAI DUNIA KI BHID ME KHONA NHI CHAHTA....