आज से पचास साल पूर्व उत्तर भारत के लोकप्रिय और मृदुल भाषा ‘भोजपुरी’को पहला सिनेमा “गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैईबो” के रूप में मिला था. इस फिल्म के निर्माता विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी द्वारा २१ फरवरी १९६३ को पटना के सदाकत आश्रम में भारत के प्रथम राष्ट्रपति व देश रत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद को समर्पित किया गया था. वहीँ उसके अगले दिन यानि २२ फरवरी १९६३ को पटना के वीणा सिनेमा में इस अद्भुत फिल्म का प्रीमियर हुआ था. लिहाजा आज हम स्वर्णिम वर्ष के पड़ाव पर खड़े हैं. इस उपलक्ष में डॉ. प्रसाद को समर्पित किये जाने के ठीक पचास साल पुरे होने पर सिने सोसाइटी ,पटना के मिडिया प्रबंधक रविराज पटेल के सफल नेतृत्व में सिने सोसाइटी , पटना और पाटलिपुत्र फिल्म एंड टेलीविजन एकेडेमी, पटना के संयुक्त तत्वावधान में एक संगोष्ठी आयोजित की गई, जिसका विषय “भोजपुरी सिनेमा के अतीत,वर्तमान और भविष्य” था. इस अवसर पर सिने सोसाइटी ,पटना के अध्यक्ष आर. एन. दास (अवकाशप्राप्त भा.प्र.से.), वरिष्ठ फिल्म पत्रकार आलोक रंजन , अभिनेता डॉ. एन . एन . पाण्डेय , वरिष्ठ फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम , गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैईबो के फिल्म वितरक वयोवृद्ध आनंदी मंडल , युवा फिल्म निर्देशक नितिन चंद्रा ( मुंबई से वीडियो कोंफ्रेंस के जरिये ),मशहूर कवि आलोक धन्वा , फिल्म संपादक कैप्टन मोहन रावत मुख्य वक्ता थे, जबकि राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त छायाकार प्रो.हेमंत कुमार ने मंच संचालन किया.
अपने उदगार में भारतीय प्रशासनिक सेवा से अवकाश प्राप्त और सिने सोसाइटी,पटना के अध्यक्ष आर. एन. दास ने कहा की ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैईबो’ के माध्यम से भोजपुरी भाषा को एक नई उर्जा मिली थी. शुरुआत बहुत ही समृद्ध रहा. वर्तमान में भटकाव है, जिसमें बदलाव की आवश्यकता है. श्री दास ने रविराज पटेल द्वारा ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैईबो’ पर किये गए शोध पर बल देते हुए, उसमें शामिल दुर्लभ जानकारियों से अवगत कराया. श्री पटेल ने इस फिल्म पर एक शोधात्मक पुस्तक लिखी है, जो सिने सोसाइटी के तहत प्रकाशनाधीन है. वहीँ दो दिवसीय आयोजन का श्रेय देते हुए श्री दास ने रविराज पटेल को बधाई देते हुए आभार प्रकट किया.
लगभग तीस वर्षों से मुंबई में फिल्म पत्रकारिता कर रहे अलोक रंजन ने कहा भोजपुरी फिल्म ,भोजपुरी से शुरू हुई, कुछ समय बाद भाजी-पूरी हो गई और अब भेल-पूरी हो गई है. श्री रंजन ने यह भी कहा की भोजपुरी सिनेमा में अश्लीलता का मुख्य कारण भोजपुरी सिनेमा के तथाकथिक निर्माता ,निर्देशक हैं. भोजपुरी में ९० प्रतिशत निर्देशक जाली है. उन्हें सिनेमा के न इतिहास पता है ,न ही भूगोल फिर तो वह जो चीजें बनायें वह गोल मटोल तो होगा ही. इसे बर्बाद करने में फिल्म वितरकों का भी बहुत लम्बा हाथ है. वर्तमान दशक में जो भोजपुरी फिल्मों का बाढ़ आया है ,उसमें एक लम्बा गैप था. मनोज तिवारी एक लोकप्रिय गायक हो चुके थे. प्रयोग के तौर पर “ससुरा बड़ा पैसा वाला” आई ,जिसे एक भोजपुरी गानों का संकलन कहना ज्यादा उचित है.उनके फैन उसे भारी सख्या में देखे और एक कमाउ दौर शुरू हुआ. एक नया ट्रेंड भी शुरू हुआ, भोजपुरी सिनेमा के नायक गायक होने लगे.जबकि यह दौर सिनेमा के आरंभिक समय में था. गायक ही नायक होते थे ,क्यूँ की सिनेमा में पार्श्वगायन की तकनीक मज़बूत नहीं थी. इस क्रम में रवि किशन एक अपवाद है, जो गायक नहीं है.
राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम ने अपने वक्तव्य में प्रमुखता से इस बात को रखा की आज के भोजपुरी सिनेमा अपने दायरे को समझ ही नहीं पा रहा है. भोजपुरी सिनेमा में यह कतई नहीं होना चाहिए की नायिका बिकनी पहन कर समुंदर किनारे रोमांस कर रही हो. यह भोजपुरी संस्कृती में कभी संभव हो ही नहीं सकता. यह तभी संभव है जब दुनिया जलप्लावल हो जाएगी. दूसरी बात यह की हम भोजपुरी को बिना देखे गाली देते हैं .जिससे मैं सहमत नहीं हूँ. सिनेमा देख कर उस पर आपत्ति जताएं या उसकी निंदा करें.
कई हिंदी व भोजपुरी फिल्मों में अभिनय कर चुके एवं पटना विश्वविद्यालय से भौतकी विभागाध्यक्ष से अवकाशप्राप्त प्रोफ़ेसर डॉ एन एन पाण्डेय ने कहा की वर्तमान भोजपुरी सिनेमा अश्लीलता के दौर से गुजर रहा है. उसके नाम तक सुनने लायक नहीं होते हैं. यहाँ के निर्देशकों में कोई मानदंड नहीं है.
प्रसिद्ध कवि एवं साहित्यकार आलोक धन्वा ने कहा की आज सिनेमा ही साहित्य है, जबकि भाषा एक महानदी है. उसी का एक अंश भोजपुरी सिनेमा भी है. मैं निराशावादी व्यक्ति नहीं हूँ, इसलिए यह उम्मीद करता हूँ की इस भटकाव में बदलाव भी ज़रूर होगी.
मुंबई से विडिओ कांफ्रेंस के जरिये “देसवा” फेम युवा फिल्म निर्देशक नितिन चंद्रा ने अपने संबोधन में कहा की आज हम सच्चा बिहारी रह ही नहीं रह गए हैं .हम अपने संस्कृती से बिलकुल कट चुके हैं.हमारा युवा वर्ग मानसिक तौर पर पलायन कर चूका है . वह रहते तो हैं बिहार के विभिन्न इलाकों में परन्तु अन्दर ही अन्दर वे दिल्ली, पुणे ,मुंबई जैसे मेट्रो सिटी में रचे बसे रहते हैं. वह अपनी मातृभाषा में बात करने से कतराते हैं. अपनी भाषा को वे हीन भावना से देखते हैं. वैसे में कोई भी हमारे संस्कृती के साथ खेलेगा ही. हम उसके लिए आवाज़ नहीं उठाते. अब ऍफ़ एम रेडियो की ही बात लीजिये, पंजाब में पंजाबी गाने बजते हैं, बंगाल में बंगाली गाने , महाराष्ट्र में मराठी जबकि पटना में भोजपुरी , मगही , मैथली ,बज्जिका ,अंगिका छोड़ कर सभी गाने बजते हैं. मैं इसके लिए संघर्ष भी कर रहा हूँ. श्री चंद्रा ने यह भी कहा की बिहार के विभिन्न भाषाई इलाकों में सरकार क्षेत्रीय भाषाओँ की पढाई शुरू करवाए,बचपन से ही उसे अपने धरोहर का पाठ पढाये ,तब जा के हम समझ पाएंगे की हमारी संस्कृती यह ,भाषा यह, तो सिनेमा भी इसी तरह के होने चाहिए. उन्हें जागरूक करने की ज़रूरत है. अच्छे फिल्मों के वितरक नहीं मिलते हैं, यह एक अगल चिंता का विषय है. बिहार में सिनेमा घरों का आभाव है. हमें सभी समस्यों पर आगे आना चाहिए.
सेना व बैंक अधिकारी से अवकाश प्राप्त एवं फिल्म संपादक कैप्टन मोहन रावत ने कहा की आज पटना में सभी तरह के सुविधा उपलब्ध रहने के बाबजूद फिल्मकार यहाँ काम नहीं करते. अगर करते भी है तो एजेंट के माध्यम से गुजरती , मराठी या पंजाबी लोगों के साथ, जिनके अन्दर न बिहार है, न यहाँ की संस्कृती है और न ही भाषा की समझ. कोई पंजाबी आदमी भोजपुरी फिल्म कैसे बना सकता है ? यह संभव ही नही है.उसके अन्दर सिर्फ पैसा चलता है, वह कामुकता को बेच कर पैसे कमाना चाहता है, और वह उसमें सफल भी है.
सन १९६३ में प्रथम भोजपुरी फिल्म “गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैईबो” के फिल्म वितरक वयोवृद्ध एवं कला मर्मज्ञ आनंदी मंडल ने उस दौर को याद करते हुए कहा की गंगा मैया ...भोजपुरी भाषा ,संस्कृती , सामाजिक विकृति को दूर करने हेतु एक नई दिशा दी थी. लेकिन आज हम उसे भूल चुके हैं. आज हम स्वास्थ्य मनोरंजन के पक्षधर नहीं रह गए हैं.उन्होंने गंगा मैया से जुडी अनेकों यादों को ताज़ा और साझा किया.
वहीँ अनेकों हिंदी भोजपुरी फिल्मों के गीतकार एवं पटकथा , संवाद लेखक विशुद्धानन्द ने कहा की आज भोजपुरी फिल्म उद्योग में भोजपुरी भाषी लोगों का आभाव है. वे अधिकांश भोजपुरी फिल्मों के दृश्यों व गानों के वास्तविक भाव से अलग बताया. उन्होंने यह भी कहा की भोजपुरी में काम करने वाले कलाकारों को भोजपुरी बोलना तक नहीं आता, न उसका मतलब समझते हैं वे. फिर उसका स्वरुप बिगड़ना स्वाभाविक है. इस अवसर पर और कई गणमान्य लोगों ने भी अपना विचार व्यक्त किया.
उक्त कार्यक्रम पटना के पाटलिपुत्र फिल्म्स एंड टेलीविजन एकेडेमी परिसर में संस्कृतीकर्मी युवा शोधार्थी रविराज पटेल के गहन प्रयास पर आयोजित थी.
श्री पटेल का प्रयास सिर्फ वहीँ तक नहीं रहा बल्कि अलगे दिन यानि २२ फरवरी २०१३ को ठीक भोजपुरी सिनेमा के पचास साल पुरे होने के उपलक्ष में सिने सोसाइटी ,पटना एवं बिहार संगीत नाटक आकादमी के सौजन्य से राजधानी पटना के प्रेमचंद रंगशाला में शाम ५ बजे “गंगा मैय तोहे पियरी चढ़ैईबो” का पुनः प्रदर्शन करवाया. इस मौके पर पटना विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. शम्भुनाथ सिंह, प्रभात खबर समाचार पत्र के पटना संस्करण के संपादक स्वयं प्रकाश, बिहार संगीत नाटक आकादमी के सचिव विभा सिन्हा, फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम,अभिनेता डॉ. एन एन पाण्डेय के आलावा पूरा रंगशाला दर्शकों के लबलब रहा. इस अवसर पर पटना विश्वविद्यालय के कुलपति से आर एन दास ने पटना विश्वविद्यालय में नियमित क्लासिक फिल्मों का प्रदर्शन करवाने का आग्रह किया.जिस पर कुलपति ने आश्वाशन भी दिया. फिल्म प्रदर्शन होने के पूर्व गंगा मैया तोहे पियरी चढ़ैईबो पर शोध कर चुके रविराज पटेल ने प्रथम भोजपुरी सिनेमा कैसे बनी इसके बारे में दर्शकों को संक्षेप में बताया. इस समारोह में मंच संचालन रंगकर्मी कुमार रविकांत कर रहे थे.
फिल्म देखते समय दर्शक भावविभोर थे .वे कभी हंस रहे थे तो कभी रो भी रहे थे. उन्हें यह विश्वास ही नहीं हो रहा था, की वह एक भोजपुरी सिनेमा देख रहे हैं. इस शानदान आयोजन के लिए उपस्थित तमाम गणमान्य लोगों से लेकर आम दर्शकों ने कार्यक्रम संयोजक रविराज पटेल को विशेष बधाई दी.