घरों के चूल्हे नहीं जलते...
मजदूरों
की गरीबी और भूखमरी दूर हो सके
इसके लिए सरकार कई योजनाएं
चला रही है.लेकिन
इन योजनाओं का क्या हश्र होता
है इसकी
बानगी बिहार में आए दिन देखने को मिलती हैं.यहां
मनरेगा के तहत मजदूरों को न
तो रोजगार मिला और न रोटी.
सर पर ईंटे
ढ़ोते हैं ये, लेकिन
आशियाने किसी और के बनते
हैं.ये
ढ़ोती हैं टोकरियां लेकिन जो
सड़कें बनती हैं उस पर दौड़ती
हैं किसी और की गाड़ियां. हर
दूसरे दिन इनके घरों के चूल्हे
नहीं जलते और
जब जलती भी हैं तो थाल में सजती
हैं सिर्फ रोटियां.ये
कहानी चन्द मजदूरों की बदहाली
की नहीं बल्कि सूबे में दम
तोड़ती मनरेगा योजना की भी
है.
समस्तीपुर
के दलसिंहसराय प्रखण्ड के
करीब दर्जनों पंचायत में
गरीबों की तंगहाली को दूर करने
के नाम पर मनरेगा योजना की
शुरूआत की गई थी.लेकिन
बाकी सारी योजनाओं की तरह इस
योजना ने भी अपने घुटने टेकने
शुरू कर दिये हैं.सरकार
ने मनरेगा जैसी दूरदर्शी योजना
को धरातल पर तो जरूर उतारा. पहले तो ये सरकार के लिए सुर्खियां
बटोरने का माध्यम बनी फिर
अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों
की लूट-खसोट
का जरिया.यह हाल तो सिर्फ एक जगह का आपने देखा या सुना अभी इस तरह के हाल से परेशान है प्रदेश, अगर वक्त रहते इस पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तो वो दिन दूर नहीं जब अपराध, नक्सल,अपहरण जैसी अमानवीय घटनाओं में भारी मात्रा में बढ़ोतरी होगी और इस समाज का बिद्रुप रुप सबको भयावह लगने लगेगी.
प्रखण्ड
में मनरेगा पीड़ितों की ये
दुर्दशा 2009 से
ही परवान पर है. इस हकीकत को बयां करती हैं
मजदूरों के खाली पड़े ये जॉब
कार्ड.महज
12 दिनों
का काम देकर खानापूर्ति कर
ली गई और
उसकी भी रकम अदायगी आज तक नहीं
हो सकी.आलम
ये है कि अधिकारियों और बिचोलियों
की पौ-बारह है.जबकि
गरीबों के लिए वही भूख की बेबसी
और पलायन की मजबूरी.
अब जब मामला
उजागर हो चुका है.तो
ज़ाहिर सी बात है कि जांच कमिटियां
बैठेंगी.गहन
चर्चा-परिचर्चा
होगी लेकिन गरीबों के दिन
सुधरेंगे और भूख मिटेगी,
तन पर कपड़े
सजेंगे ये उम्मीद करना जल्दबाजी
ही होगी.
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