आंकड़ों का खेल बना प्राथमिक शिक्षा
प्राथमिक
शिक्षा किसी भी देश का भविष्य
माना जाता है लेकिन अनेक
प्रयासों के बावजूद इसमें
विकास सिर्फ आंकड़ों का खेल
माना जाता है। इसे ठीक करने
के लिए अपने सुझाव दें.....
समाज
की नींव शिक्षा है और शिक्षा
की नींव प्राथमिक शिक्षा मानी
जाती है। इसलिए प्राथमिक
शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखना
बेहद जरूरी है। वास्तविक
शिक्षा और शिक्षा की गुणवत्ता
को बनाए रखने के लिए सरकार के
साथ –साथ समाज की भी जिम्मेदारी
होना चाहिए। प्राथमिक शिक्षा
के स्तर में जो गिरावट देखने
को मिली है उसके लिए केवल सरकार
को दोषी बताना गलत होगा इसके
लिए हम और हमारा समाज भी दोषी
हैं। स्वतंत्रता पश्चात शिक्षा
के विकास और विस्तार राज्य
सरकार पर बढ़ा है। भारतीय
संविधान के अनुच्छेद 41
के अनुसार
....सरकार
अपनी आर्थिक क्षमता के अनुरूप
जनता के शिक्षा संबंधी अधिकारों
को पुष्ट करेगी। सामाजिक विकास
एवं आर्थिक क्षमता में लगातार
वृद्धि के मद्देनजर सरकार ने
14 वर्ष
के कम उम्र के बच्चों को नि:शुल्क
एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध
कराने के लिए कानून बनाया।
शिक्षा में सुधार के लिए कई
योजनाएं भी बनाए गए । शिक्षा
के नाम पर करोड़ों रूपए पानी
की तरह बहाए जा रहें लेकिन
शिक्षा के स्थिति में कोई
सुधार होता नहीं दिख रहा है।
ऐसे में प्रश्न यह है कि इसके
लिए कौन जिम्मेवार है?
सरकारी कागजों
पर शिक्षा के स्तर में सुधार
की बात कही जाती है पर हकिकत
कुछ और ही है....शिक्षा
के स्तर में जो गिरावट देखने
को मिला या कहें की मिलावटी
शिक्षा समाज के सामने है। इस
सच को साने लाने में मीडिया
की भूमिका अहम है। आंकड़ों
के माध्यम से जो खेल खेला जा
रहा है, उससे
देश का विकास संभव नहीं है।
इससे देश का भविष्य दाव पर लग
सकता है। आजादी के 6
दशक गुजर जाने
के बाद भी वास्तविक शिक्षा
स्तर में कोई सुधार नहीं दिख
रहा है। केवल आंकड़ों के माध्यम
से वास्तविक शिक्षा के स्थिति
को बेहतर बताया जा रहा है,
लेकिन वास्कविकता
कुछ और ही है। राष्ट्रपिता
महात्मा गांधी का मानना था
कि वास्तविक शिक्षा वह है
जिससे व्यक्ति के चरित्र का
निर्माण हो। लेकिन वर्तमान
शिक्षा पद्धति चरित्र निर्माण
में सहायक साबित नहीं हो रही
है। वास्तविक शिक्षा के अभाव
में बच्चो का विकास रूक गया
है, बच्चे
दिशाविहीन हो गए हैं। इस बात
में कोई संदेह नहीं कि स्वतंत्रता
के बाद देश के शैक्षणिक परिदृश्य
में व्यापक बदलाव हुए हैं।
पर इस बदलाव ने पूरे शिक्षा
का उद्देश्य ही बदल डाला।
शिक्षा का मुख्य उद्देश्य अब
केवल धन कमाना रह गया है। शिक्षा
के इस उद्देश्य को तरक्की का
पैमाना माना जाए तो वास्तव
में देश काफी तरक्की की
है......क्या
देश के इस तरक्की से देश का
भविष्य सुरक्षित है....यह
हमारे सामने एक सवाल है। जब
बच्चों का भविष्य सुरक्षित
नहीं है तो देश का भविष्य कैसे
सुरक्षित हो सकता है क्योंकि
हम ही तो कहते हैं बच्चे देश
के भविष्य हैं। आज शिक्षा उतना
ही जरूरी है जितना जीवन जीने
के लिए रोटी, कपड़ा
और मकान.....
वर्तमान
शिक्षा व्यवस्था और आंकड़ो
के खेल ने बच्चे के भविष्य को
दावपर लगा दिया है। प्राथमिक
शिक्षा पर NCF- 2005 की
गाइड लाइन और शिक्षा के अधिकार
कानून आने के बावजुद भी प्राथमिक
शिक्षा के सामने कई चुनौतियां
है। अभी बच्चों को केंद्र में
लाने की बात चल रहे हैं कि नई
परिस्थितियों में शिक्षक की
अस्मिता और गरिमा के रूप में
नई परिघटना सामने आ गई है। गैर
सरकारी संस्थाओं का सापेक्षत
एक छोटा तबका विभिन्न परियोजना
के माध्यम से इस क्षेत्र में
काम कर रहा है लेकिन ऐसी
परियोजनाओं की निरन्तरता का
अपना संकट है, एन
संस्थाओं ने पुरानी शिक्षण
पद्धति को कटघरे में खड़ा किया
है। सीखने –सीखाने में स्कूल
, शिक्षक
और बच्चे को समझने की एक नई
दृष्टि पैदा की है। प्राथमिक
विद्यालयों और शिक्षकों की
छवि समाज में सुधरती नज़र नहीं
आ रही है। ये घटनाएं इस तरफ
इसारा करती है कि समस्याएं
जिस जमीन से पैदा हो रही है,
उस जमीन की
हकीकत को सामने लाने और उनसे
जूझने के लिए जिन रास्तों की
आवश्यकता है उसका प्रयास
नाकाफी सिद्ध हो रहा है। सभी
प्रयासों में सुधार की कार्यक्रम
की भरमार है लेकिन बदलाव की
रोशनी दिखाई नहीं पर पड़ रही
है। प्राथमिक शिक्षा में बदलाव
हेतु प्रयोग में लाए जाने वाले
तरीके और जबावदेही को सुनिश्चित
करने में नए मैकेनिजम की जरूरत
दिखाई पड़ती है। प्राथमिक
शिक्षण में लगी इतनी बड़ी
मानवीय उर्जा और लंसाधन के
बेहतर उपयोग की कुशलता को
उन्नत बनाने में जिस ऊर्जा,
क्षमता,
चिंतन और
सृजनशीलता की आवश्कता है उसके
निर्माण की प्रक्रिया और
निरंतरता नदारद है। डंडे की
जोर पर पशुओं को नियंत्रित
किया जा सकता है इंसानों को
नहीं। अलग –अलग राज्य अपनी
आर्थिक क्षमता के अनुरूप
शिक्षा पर खर्च करती है.....वर्तमान
में बिहार में 2012-13
का आम बजट पेश
किया गया। जिसमें शिक्षा के
क्षेत्र में 21 फीसदी
राशि खर्च करने का प्रस्ताव
रखा गया। भारत में बिहार शिक्षा
के मामले में सबसे पिछड़ा
राज्य है......ऐसे
में बिहार में शिक्षा की दशा
पर चिंता होना लाज़मी है। एक
सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार
बिहार में प्रारंभिक स्कूली
शिक्षा की दिशा तो ठीक हुई है
लेकिन दशा अभी भी अच्छें नहीं
है। शिक्षकों और स्कूल भवन
संबंधी बुनियादी ज़रूरतों
का अभाव सबसे बड़ी रूकावट है।
राज्य में स्कूलों में शिक्षकों
के पढ़ाने और छात्रों के सीखने
का स्तर अभी भी नीचे है लेकिन
कुछ सरकारी योजनाओं के कारम
आरंभिक शिक्षा के प्रति रूझान
बढ़ी है।
उपरी
सतह पर दिखायी देने वाले
प्राथमिक शिक्षा का यह खुशनुमा
रंग भविष्य की वास्तविक सच्चाई
से कितना मेल खाता है यह तो
भविष्य ही बताएगा.
प्राथमिक
शिक्षा के गिरते स्तर के कई
कारण हैं......
- प्राइमरी स्कूलों में शिक्षा का आभाव-
- शिक्षकों और खासकर योग्य शिक्षकों की भारी कमी
- निरीक्षण करने वाले सरकारी तंत्र और निगरानी करने वाले शिक्षा समिति के निष्क्रिय रहने को इस बदहाल शिक्षा व्यवस्था के तीसरे कारण के रुप में माना जा सकता है.प्राथमिक शिक्षा के लिए बुनियादी जरूरतों को पूरा करना होगा। स्कूल भवन, पयजल, बिजली, शौचालय आदि की व्यवस्था अति महत्वपूर्ण है। जब बुनियादी जरूरते पूरी होगी तभी जाकर आप अपने लक्ष्य में सफल हो पाएंगे। लक्ष्य बच्चे को स्कूल में आने का....मुलभूत सुविधा नहीं होने के कारण बच्चे स्कूल नहीं जाते। वैसे तो सरकार ने कई तरह की योजना बना रखी है ताकि बच्चे स्कूल आए। योजना का सही तरह से लागू नहीं होना इसकी विफलता का मुख्य कारण है। भारत सरकार की मीड-डे मील योजना जिसके माध्यम से बच्चों को दोपहर का भोजन उपलब्ध कराया जाता। इस योजना का जो हाल है किसी से छुपा नहीं....इसलिए आवश्यकता है कि योजना को सही ढ़ंग से लागू करने का।
- शिक्षक का अभाव या कहें कि योग्य शिक्षक का घोर अभाव जिस कारण से बच्चे का सही विकास नहीं हो पाता है। स्कूल में शिक्षकों की जो स्थिती है ये भी किसी से छुपा नहीं हैं। जो शिक्षक है वह भी स्कूल के वक्त स्कूल से गायब रहते हैं....साथ ही योग्यता की घोर कमी भी देखने को मिला है....बिहार की बात करें तो हाल के दिनों में बिहार के कई जिलों के सरकारी स्कूल से जो ख़बर टी.वी चैनलों के माध्यम से देखने को मिला इसे देखकर कोई भी शिक्षित व्यक्ति दंग रह जाएंगे। बच्चों को पढ़ाने के लिए शिक्षक के पास आधारभूत जानकारी का पूरा अभाव है। सही जानकारी बच्चों को नहीं दे रहें है....ऐसे बच्चों का भविष्य कहां जाएगा आप खुद सोच सकते हैं।
- स्कूलों में शिक्षा की व्यवस्था तो एक अलग पहलू है मगर इससे भी बड़ा सवाल ये है कि प्राइमरी स्कूलों में बच्चे पढ़ने से ज्यादा काने के लिए आते है. और यहां पढ़ाने वाले गुरुजी इससे ज्यादा परेशान रहते हैं कि बच्चों को समय पर खाना खिलायें अन्यथा आज की जनता इतनी जागरुक हो गई है कि कभी भी कोई बवाल खड़ा कर सकती है तो दूसरी तरफ आलाधिकारियों का भय भी सताता है.
- जो भी सरकारी स्तर पर योजनाओं को लाया जाता है उसमें सबसे बड़ी बात है कि एक तरफ उसकी खानापूर्ति करनी होती है तो दूसरी तरफ शिक्षा समिति बंदरबांट की फिराक में रहता है. जिससे यह साफ हो जाता है कि किसी भी योजना का लाभ कितना मिलता है किसी से छुपा हुआ नहीं है. इसके अलावे रही बात शिक्षा समिति के कार्य प्रणाली की तो यह सिर्फ स्थानीय स्तर की राजनीति का अखाड़ों का शिकार हो जाती है जिससे यह अपने कार्यों का उचित निर्वहन नही कर पाती. इसमे सक्रिय सिर्फ अध्यक्ष और सचिव ही रह जाते हैं बाकी सभी ढांक के तीन पांत साबित होकर रह जाते हैं.निष्कर्ष.....
- प्राइमरी स्कूलों में शिक्षा का मतलब होता है मां की तरह लाड़ प्यार के साथ पढ़ाई के अक्षरों के साथ-साथ सही मार्गदर्शन की. क्योंकि यहीं से शिक्षा की नींव को मजबूत किया जाता है जो आगे की मंजिल को तय करता है. अगर यहां पर ही राजनीति की पाठशाला बन जाए तो उनका भविष्य परेशानी में पड़ जाएगा. रही बात इसमें सुधार करने की तो सबसे पहले एक बात याद रखनी होगी शिक्षक को अपने कर्तव्य का पालन करना होगा तो बच्चों के अभिभावक को भी अपनी जिम्मेवारी को समझना पड़ेगा. इन सभी बातों की बारिकी को जब तक आप नहीं समझ सकते तब तक सभ्य और संपन्न भविष्य की कामना बेमानी लगती है. इसके लिए सभी को अपने जिम्मेवारी का अपने तरीके से निर्वाह करना होगा...................................... चंदन कुमार (पत्रकार) पटना
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