गजल
जिंदगी की शाम ढलने से पहले, कैसी बेवफाई है
जख्म देकर तूने, ये कैसी वफा निभाई है.
रोज सपनों के सब्जबाग में खोया रहा
खुली हुई आंखों से, जहां में सोया रहा
दूर हुए वो हमसे, ये कैसी रुसवाई है
जख्म देकर....................................
वक्त आया ही नहीं, दिल के कुछ कहने की
फिर भी रहो कहीं,दुआ है सलामत रहने की
तेरी यादों से, आज फिर आंखें भर आयी है
जख्म देकर..............................................
तन्हा-तन्हा जिंदगी, अब रहगुजर बन जाएगी
सुबह से सांझ, फिर एक दिन ढल जाएगी
ख्वाहिशें रह गई दिल में, ये कैसी जुदाई है
जख्म देकर............................................
-मुरली मनोहर श्रीवास्तव की कलम से........
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